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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2

हिषय हिन्दी

प्रश् नपर सं. एिं शीषषक P 11 : स्‍त री लेखन

इकाई सं. एिं शीषषक M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री-2

इकाई टैग HND_P11_M14

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश् नपर-संयोजक प्रो. रोहिणी अग्रिाल इकाई-लेखक प्रो. रोहिणी अग्रिाल इकाई-समीक्षक प्रो. कैलाश देिी ससंि

भाषा-सम्पादक प्रो. देिशंकर निीन

पाठ का प्रारूप

1. पाठ का उद्देश्य 2. प्रस्‍ततािना

3. ददव्या में यशपाल के स्‍त री-हिषयक दृहिकोण

4. बाणभट्ट की आत्मकथा में स्‍त री-हिषयक दृहिकोण

5. हनष्कषष

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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2 1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप-

 यशपाल का स्‍त रीिादी दृहिकोण समझ सकेंगे।

 आचायष िजारीप्रसाद हििेदी का स्‍त रीिादी दृहिकोण जान पाएँगे।

 ददव्या एिं बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास में हचहरत स्‍त री पार के माध्यम से उस समय के हस्‍त रयों की दशा

जान सकेंगे।

2. प्रस्‍ततािना

झूठा सच के बाद ददव्या उपन्यास यशपाल की उत्कृि रचना िै, जिाँ एक पूरी परम्परा में िे स्‍त री को अधीन बनाए जाने

और उसकी अधीनता को पररपुि करने िाले सामाहजक-सांस्‍तकृहतक मन्तव्यों की बारीक पड़ताल करते िैं। यशपाल इहतिास को ‘मनुष्य की अपनी परम्परा में आत्महिश् लेषण’ की जरटल एिं हनरन्तर प्रदिया मानते िैं। अतः ददव्या

उपन्यास के संहक्षप्त फलक में इहतिास के बिाने रुग्ण िणाषश्रम व्यिस्‍तथा का पुनरीक्षण तथा बौद्ध धमष की संघीय व्यिस्‍तथा

का हिश् लेषण करने के साथ-साथ आर्थषक-िैचाररक रूप से आत्महनभषर स्‍त री की मानहसक-सामाहजक हस्‍तथहत का आकलन भी करते िैं।

3. ददव्या में यशपाल के स्‍त री-हिषयक दृहिकोण

यशपाल की स्‍त री-दृहि को उनकी स्‍त रीहिषयक मानयताओं के आधार पर समझा जा सकता िै। सिषप्रथम अपनी रचनाओं के

आधार पर िे हििाि-संस्‍तथा के हिरोधी प्रतीत िोते िैं, क्योंदक इसे िे स्‍त री की अहस्‍तमता और स्‍तितन्रता का िनन करने

िाला घटक मानते िैं। स्‍त री िारा मनिांहित पुरुष का िरण कर पाने की स्‍तितन्रता अर्जषत करना उनका प्रमुख लेखकीय सरोकार िै, हजसकी अनुगूँज ‘दादा कामरेड’ की शैल में सुनी जा सकती िै, तो प्रहतगूँज ‘झूठा सच’ की कनक में -‘पुरुष िी

चुन सकता िै, स्‍त री निीं चुन सकती?’ इसीहलए ददव्या उपन्यास की नाहयका ददव्या का सारा संघषष अन्ततः अपनी

मानिीय अहस्‍तमता की तलाश िै, हजसे लेखक ने तीन चरणों में व्यक्त दकया िै। प्रथम, सामाहजक िजषनाओं के बरक्स

िैयहक्तक आकाँक्षा-पूर्तष का जोहखम भरा कदम उठा कर ददव्या पुरुष एिं समाज के हृदयिीन दम्भ को परत दर परत खोलती चलती िै। अपनी िताशा को सिाल बना कर िि इस हघनौने सत्य को सामने लाती िै दक स्‍त री को देि मानने िाले

समाज में स्‍त री किीं भी सुरहक्षत निीं िै - “भय दकससे निीं िै? कठोर धीर रुद्रधीर,कोमल पृथुसेन, अभद्र माररश और माताल िृक्, नारी के हलए सब समान िैं। जो भोग्या बनने के हलए उत्पन् न हुई, उसके हलए अन्यर शरण किाँ? उसे सब भोगेंगे िी। भय दकससे निीं? क्या तात से निीं? मिाहपतृव्य से भय निीं? िे मुझे आयष रुद्रधीर को देना चािते थे। मैंने

स्‍तिेच्िा से पृथुसेन को आत्मसमपषण दकया, उसका फल यि (अहििाहित मातृत्ि) िै।’’ ददव्या इस सांस्‍तकृहतक प्रिंचना को

भी भलीभाँहत समझ गई िै दक मातृत्ि सृहि की हनरन्तरता का संिधषन करने िाली मानिीय गररमा निीं, स्‍त री को परतन्र और पालतू बनाने का अनुष्ठान िै, जिाँ हपता अथाषत् माहलक का ठप्पा लगने पर िि िैध और स्‍तिीकायष िै, अन्यथा अिैध और हतरस्‍तकृत। “पृथुसेन की सन्तान िोने से शाकुल के हलए सभी कुि प्राप्त िोता और उसकी (ददव्या की) सन्तान िोने से

शाकुल के हलए कुि भी प्राप्य निीं। िि जैसे पार से िलक गई जल की बूँद की भाँहत िै, जो केिल सूख कर समाप्त िो

जाने के हलए िी िै।’’

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M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2

कुलीन ब्राह्मण कन्या ददव्या, प्रेम में धोखा खाने और हििाि-पूिष गभषिती

िो जाने के कारण घर से भाग हनकलने को बाध्य िै। अहभजात पररिार में पली यि लड़की अपने और सद्य-प्रसूत पुर शाकुल के जीिन-रक्षण के हलए पिले दासी दारा बनने को हििश िोती िै, दफर िेश्या अंशुमाला। दासी तथा िेश्या की

परस्‍तपर-हिरुद्ध भूहमकाओं में उसने बार-बार एक िी सत्य का साक्षात्कार दकया िै दक “स्‍त री जीिन की पूर्तष निीं, जीिन की पूर्तष का एक उपकरण और साधन मार िै’’; दक “नारी का कुल क्या? उसे भोगने िाले पुरुष के कुल से नारी का कुल

िोता िै’’। यि ददव्या का निीं, स्‍तियं यशपाल का मोिभंग िै, इसहलए संघषष के दूसरे चरण को प्रत्यक्ष करने के हलए उपन्यास की आन्तररक संरचना में यि सिाल हनबद्ध दकया गया िै दक स्‍तितन्रता एिं आत्म-हनणषय का अहधकार स्‍त री पाए किाँ से? क्या स्‍त री-पुरुष की सियोग एिं सद्भािनापूणष समानान्तर हस्‍तथहत पररिार एिं समाज-संस्‍तथा की रक्षा कर पाएगी? यशपाल ददव्या के इस हिश् लेषण से पूणषतया सिमत िैं दक “कुलिधू का सम्मान, कुलमाता का आदर और कुलमिादेिी का अहधकार आयष पुरुष का प्रश्रय मार िै। िि नारी का सम्मान निीं, उसे भोग करने िाले परािमी पुरुष का

सम्मान िै। आयष, अपने स्‍तित्ि का त्याग करके िी नारी िि सम्मान प्राप्त कर सकती िै।’’ ददव्या आशाहन्ित िै दक बौद्ध हििारों की जनताहन्रक व्यिस्‍तथा स्‍त री, अथाषत् मनुष्य िोने के नाते उसके नागररक अहधकारों की रक्षा करेगी, लेदकन ििाँ

भी पुरुषिादी चररर और अिं का हिस्‍ततार पाकर िि स्‍ततब्ध िै। क्या इस सृहि में किीं स्‍त री-मन का पुरुष निीं, जो स्‍त री की

मानिीय अहस्‍तमता में आस्‍तथा व्यक्त कर उसे अपना हमर और सिचर समझे, देि निीं? यशपाल की हिशेषता िै दक िताशा

में भी िे जीिन के प्रहत ददव्या की आस्‍तथा को भंग निीं िोने देते - “प्रयत्न और चेिा जीिन का स्‍तिभाि और गुण िै। जीिन में एक समय प्रयत्न की असफलता मनुष्य का सम्पूणष जीिन निीं िै।’’ स्‍तपि िै दक असामर्थयष स्‍तिीकार करने, अथाषत् जीिन में

प्रयत्निीन िोते चले जाने की प्रदिया में जीिन से उपराम िो जाने को िे अपने स्‍त री पारों की हनयहत निीं बनने दे सकते।

संघषष का तीसरा चरण स्‍त री िारा आर्थषक-मानहसक-सामाहजक स्‍तितन्रता अर्जषत करने की चेिा िै। बौद्ध हििार िारा

ददव्या को बता ददया जाता िै दक अहभभािक की अनुमहत के हबना उस जैसी लोकताहन्रक व्यिस्‍तथा भी पीह डता स्‍त री को

शरण निीं दे सकती। स्‍त री हनणषय लेने के हलए स्‍तितन्र निीं। स्‍तितन्र स्‍त री का अथष िै िेश्या बन जाना। पुरुष-उत्पीह डता

ददव्या िर तरि के अंकुश और िजषना से मुहक्त चािती िै, इसहलए हनणषय लेती िै - ‘िेश्या स्‍तितन्र नारी िै.... मैं िेश्या

बनूँगी’। ददव्या का िेश्या अंशुमाला बन कर रहसक समाज का मनोरंजन करना भले िी बौद्धकालीन ऐहतिाहसक कलेिर की रक्षा का माध्यम रिा िो, आज इसे नौकरीपेशा स्‍त री की आत्महनभषरता में अनूददत दकया जा सकता िै। कताष की

भूहमका में उतर कर अपने जीिन-सूरों को स्‍तियं अपने िाथों में ले लेने का आत्महिश् िास ददव्या के समूचे व्यहक्तत्ि एिं

िाणी को जो ओज और ऊजाष देता िै, उसकी प्रहतच्िहि इस आत्मस्‍तिीकार में द्रिव्य िै दक पुरुष के “प्रश्रय में नारी के

जीिन की साथषकता क्या िै? पुरुष िारा उसका भोग और उपयोग। जैसे पान की इच्िा िोने पर पानदान की साथषकता।

आयष, उस प्रश्रय की इच्िा न करने पर िी नारी स्‍तितन्र िै। ... जीिन की हिफलता में भी मुझे िेश्या की आत्महनभषरता

स्‍तिीकार िै।’’ ददव्या की इस आत्मोपलहब्ध में ‘झूठा सच’ की तारा-कनक जैसी हिस्‍तथाहपत लड़दकयों की आर्थषक आत्महनभषरता तथा ‘मेरी तेरी उसकी बात’ की उषा-हचरा के रूप में अपनी नापसन्दगी का मुखर उद्घोष करती नई पीढी

की प्राथहमकता को अनुस्‍तयूत कर यशपाल स्‍त री की स्‍तितन्र एिं भासमान अहस्‍तमता के प्रबल पैरोकार ददखाई पड़ते िैं, लेदकन उम्र की ढलान पर खड़ी एकाकी असुरहक्षत िेश्या रत्नप्रभा के अिसाद को शब्दबद्ध कर िे उस मानहसक-

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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2

भािनात्मक ररहक्त की ओर संकेत करना भी निीं भूलते, हजसे कृष्णा

सोबती की रचना ‘हमरो मरजानी’ में हमरो की कसबन माँ बालो की हनजषनता और ‘गुलाबजल गंडेररयाँ’ की धन्नो की

अतृप्त तृषा में प्रतीदकत दकया िै। जीिन के प्रिाि से कटने ददए जाने की पीड़ा रुग्ण मनोिृहि के साथ हमल कर कुण्ठा और

िैचाररक संकीणषता की हजस फसल को तैयार करेगी, उसे लेकर क्या भहिष्य के सुनिरे सपने बुनना सम्भि िै?

मुहक्त की आकांक्षा की दृहि से ददव्या के आत्म-संघषष का चौथा चरण िै - स्‍त री-पुरुष सम्बन्ध की सैद्धाहन्तकी प्रस्‍ततुत करना।

इस दृहि से उपन्यास के अहन्तम पृष्ठ में ददव्या-माररश संिाद स्‍त री-हिमशष की परम्परा में ऐहतिाहसक मित्त्ि रखता िै, जिाँ

आचायष की गररमा से महण्डत रुद्रधीर, बौद्ध संघ में दीहक्षत परािमी पृथुसेन तथा अपनी िी संकल्पनाओं के अनुरूप

िजषनािीन जीिन जीने िाला माररश -तीनों ददव्या से पररणय-याचना करते िैं। अपने-अपने समाज एिं संघ की व्यिस्‍तथा

में बँधे रुद्रधीर और पृथुसेन के पास ददव्या की िैयहक्तकता को सुरहक्षत रखने का कोई उपाय अथिा आश् िासन निीं िै, माररश के पास िै - िि भी गारण्टी रूप में निीं, प्रयोग के स्‍ततर पर, आदान-प्रदान की प्रदिया में जो सतत हिकसनशील एिं लोचशील िोने के कारण व्यहक्तत्ि को समृद्धतर करती िै। अपनी क्षुद्रता तथा सीमा के स्‍तिीकार के बीच क्षणभंगुर जीिन में अमरत्ि का प्रसार करने का संकल्प माररश के दृढ गत्यात्मक व्यहक्तत्ि को बहुआयामी ऊजषहस्‍तिता देता िै, हजसके

समक्ष संिेदना एिं आत्मसम्मान जैसी मनोिृहियाँ नतहशर िैं। दो और दो चार की ईमानदारी में पगा माररश का हनिेदन उद्धरणीय िै - “िि (माररश) संसार के सुख-दुख अनुभि करता िै। अनुभूहत और हिचार िी उसकी शहक्त िैं। उस अनुभूहत का िी आदान-प्रदान िि देिी से कर सकता िै। िि संसार के धूल-धूसररत मागष का पहथक िै। उस मागष पर देिी के नारीत्ि

की कामना में िि अपना पुरुषत्ि अपषण करता िै। िि आश्रय का आदान-प्रदान चािता िै। ... िि नश् िर जीिन में सन्तोष की अनुभूहत दे सकता िै। सन्तहत की परम्परा के रूप में मानि की अमरता दे सकता िै।‘‘ ठीक इसी स्‍तथल पर मृदुला गगष के

उपन्यास ‘कठगुलाब’ का स्‍तमरण िो आना, पररिार तथा सन्तान के प्रहत स्‍त री-पुरुष दोनों के अनुराग और ललक को दुगुने

बल से रेखांदकत करना िै, जिाँ हस्‍तमता-नमषदा-असीमा तमाम प्रिंहचता हस्‍त रयां माररयान की िी बात दोिरा रिी िैं दक “मैं

एक बच् चा पालना चािती हँ। .... अपनी आँखों के सामने अपने पर हनभषर बच्चे को आत्महनभषर बनते देखना चािती हँ। उसे

आत्महनभषर बनाने में इन्िेस्‍तट करना चािती हँ। मैं पालना-पोसना, सिेजना-सँिारना चािती हँ।’’ साथ िी द्रिव्य िै दक हिहपन अपने हशशु में स्‍तियं को प्रस्‍तथाहपत कर सृजन की-परम्परा को अक्षुण्ण रखना चािता िै। माररश के आश् िासन में

सृजन के हलए अपेहक्षत दोनों गुण - तरलता और ऊष्मा - मौजूद िैं, लेदकन मृदुला गगष के रूप में आज का स्‍त री-लेखन उन हस्‍तथहतयों की भी गिरी थाि लेने में सक्षम िै, जिाँ दोनों के अनुपात में अपेहक्षत सन्तुलन के हबगड़ते िी सृजन की

सम्भािनाएँ समेट कर बंजर िो जाने को करटबद्ध िै स्‍त री। कताष और नेता मार पुरुष निीं, एक-दूसरे के सि-अहस्‍ततत्ि में

स्‍तटीररयोटाइप भूहमकाओं का हिलयन करते दम्पहि का सलंग-प्रभुतािीन एकत्ि िै। सुखद हिस्‍तमय िै दक यशपाल इक्कीसिीं

सदी की स्‍तितन्रचेता नारी की मानिीय अपेक्षाओं को पिचान गए थे और उनके औहचत्य को जानते हुए तदनुरूप पुरुष- प्रिृहि में पररितषन की अहनिायषता को भी। संक्षेप में, ददव्या उपन्यास उनके इस हनचोड़ का पररणाम िै दक “स्‍त री जीिन की पूर्तष निीं, जीिन की पूर्तष का एक उपकरण और साधन मार िै।“

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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2

पुरुष-दम्भ से मुक्त िोने के कारण यशपाल इस ‘आप्त-िाक्य’ को रच पाए िैं दक ‘पुरुष कभी स्‍त री के दृहिकोण से समस्‍तया को

निीं देख सकता।’ िो सकता िै उनकी यि स्‍तिीकारोहक्त हििाद को गिराए, लेदकन लुप्त िोती स्‍त रीिादी पुरुष लेखकों की

परम्परा प्रजाहत में उनकी मुखर उपहस्‍तथत आश् िहस्‍तत का अिसास कराती िै।

4. बाणभट्ट की आत्मकथा में स्‍त री-हिषयक दृहिकोण

हनपुहणका ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की सिाषहधक स्‍तमरणीय एिं गहतशील पार िै। अभाि ने उसे रचा िै, सामाहजक रूह ढयों

ने उसे ददशा दी िै और संघषष ने उसे सँिारा िै। कांदहिक िैश्य की पत् नी के रूप में एक िषष का दाम्पत्य जीिन जीने िाली

हनपुहणका ने िैधव्य के अहभशाप को शारीररक-मानहसक स्‍ततर पर बहुत गिरे झेला िै। पूणषतया अरहक्षत इस बाहलका को

आत्मरक्षा के उद्योग में घर से भाग कर अकेले इधर-उधर भटकना पड़ा िै। जीिन उसके हलए काँटों भरी डगर रिा िै।

समतल तब हुआ जब सोलि िषष की अबोध आयु में अपना पररचय और दीनता िुपाती हुई िि बाणभट्ट की नट-मण्डली में

बतौर अहभनेरी शाहमल हुई। अहभनय उसके हलए करठन कायष था भी निीं, क्योंदक नारी-हिग्रि लेकर पररिार-समाज में

कदम-कदम पर अहभनय िी तो करना पड़ता िै स्‍त री को - “जो िास्‍तति िै उसको दबाना और जो अिास्‍तति िै, उसका

आचरण करना - यिी तो अहभनय िै। सारे जीिन यिी अहभनय दकया। एक ददन रंगमंच पर उतर जाने से क्या बन या

हबगड़ जाएगा।’’ समूचे ददक्-काल का अहतिमण कर हनपुहणका हिशुद्ध स्‍त री िै और व्यथामूलक हनयहत के आधार पर समूची स्‍त री-जाहत को एकीकृत कर देने िाला घटक। उसकी व्यथा धमषशास्‍त रीय मान्यताओं से जन्मी और सामाहजक रूह ढयों से पोहषत िै हजसे पुरुष और सिा का अिं अहन्तम सत्य मान कर उसकी मानिीय इयिा को सूहक्तयों और आप्तिचनों में हिघरटत कर डालना चािता िै। इसहलए हनपुहणका पूरे उपन्यास में मनुष्य के रूप में एक जीिन्त इकाई निीं ददखती, कुि िहियों, कुि पूिाषग्रिों, कुि अपेक्षाओं के हमश्रण से तैयार अबला नारी का प्रतीक िै। पुरुष िेश में

शार्िषलक के अड्डे पर एक ददन नौकरी करती हनपुहणका उन तमाम संकटों और हिद्रूप सत्यों की ओर उँगली उठाती िै जो

स्‍त री जीिन को आए ददन घेरे रिते िैं। स्‍त री िेश में िि हनिषन्ि निीं घूम सकती, क्योंदक अपिरण या यौन-शोषण का भय

िर दम हसर पर मँडराता रिता िै। शार्िषलक के अड्डे पर ऐसी िी अपहृता कन्याओं के िय-हििय के घृहणत व्यापार को

िि देख चुकी िै और दासी अथिा गहणका के रूप में उन कन्याओं के लाचार जीिन को भी। स्‍तियं सम्मानजनक जीिन की

आकांक्षा में िि पान की दुकान चलाती िै, लेदकन पाती िै दक पान से ज्यादा मुस्‍तकान बेच कर उसे अपना पेट भरना पड़ता

िै। स्‍त री शरीर को देिमहन्दर के समान पहिरा और रमणीय मानने िाले बाणभट्ट से उसे ढेरों अपेक्षाएँ िैं, लेदकन आकाश- कुसुम के हलए भटकता भट्ट जमीनी सचाइयों से रू-ब-रू िोना िी निीं चािता। हनपुहणका शब्द-शब्द अपनी यातना उसे

बताती िै - “मेरा कौन सा - ऐसा पाप चररर िै, हजसके कारण मैं हनदारुण दुख की भट्ठी में आजीिन जलती रिी? क्या

स्‍त री िोना िी मेरे सारे अनथों की जड़ निीं िै? ...क़्या बृििर सत्य के नाम पर हमर्थया का ताण्डि निीं चल रिा िै?’’ भट्ट अक्षर-अक्षर हपघलता चलता िै लेदकन बकौल हनपुहणका िि ‘जड़ पाषाण हपण्ड मार िै’ हजसके भीतर न देिता िै, न पशु। िै तो एक अहडग जड़ता। उद्बोधन और हनिेदन, आिोश और संकल्प के बीच झूलती हनपुहणका लक्ष्य तक पहुँचने के

हलए मार एक करािलम्ब चािती िै - “मेरी इच्िा िै दक एक बार तुम सम्राटों की भृकुरटयों की उपेक्षा करके इस मिासत्य को ऊँचे ससंिासनों तक पहुँचा दो। ...मैं इस ढूि की एक नगण्य गहणका मार हँ। मुझे इस योग्य बना दो दक आप अपनी

अहि से धधक कर समूचे जंजाल को भस्‍तम कर दूँ। मैं तुम्िारा करािलम्ब चािती हँ ...मुझे तेज की हचनगारी दो आयष।’’

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HND : हिन्दी P11 : स्‍त री लेखन

M14 : पुरुष रचनाकारों के साहित्य में हचहरत स्‍त री 2

लेदकन भट्ट! के पास न तेज िै, न आधार। िि हपतृसिात्मक व्यिस्‍तथा का

साया िै। इसहलए हनपुहणका का उद्बोधन पररितषनकामी संघषष की टंकार बन कर निीं उभरता, ‘प्रलाप’ बन कर रि जाता

िै।

हनपुहणका की हनणषय लेने की क्षमता और कमषठता (जो भट्ट को नर-बहल से बचाने के प्रकरण में िज्रतीथष श्मशान में प्रचण्ड नृत्य बन कर उभरी िै) उपन्यासकार को ज्यादा रास निीं आती। इसहलए िर दोरािे-चौरािे पर रठठके भट्ट को सिी मागष पर ले जाने िाली और अपनी आँखों में आँसुओं की जगि अहि स्‍तफुसलंग भर कर व्यिस्‍तथा से टकराने का माद्दा रखने िाली

हनपुहणका को लेखक ितबल कर देता िै। अब िि बार-बार परकटे पक्षी की भाँहत ‘संज्ञािीन अिस्‍तथा में’ पहुँचने लगती िै।

संज्ञा िोने पर आत्महधक्कार से ग्रस्‍तत - “मैं बड़ी पाहपनी हँ आर्यष, मैं सेिा धमष में भी असफल हँ... िाय, अगर तुम मेरी पाप ज्िाला देख सकते?’’ ऐसी ‘दुहखया’ स्‍त री का उद्धार करने में लेखक को कोई परेशानी निीं। बहल्क पूरी हपतृसिात्मक व्यिस्‍तथा को कन्धे पर ढोते नायक का यि सौभाग्य िै दक हनपुहणका के हनजी जीिन के दृिान्त से िि स्‍त रीत्ि की मयाषदा

स्‍तथाहपत कर सके। तब शुरु िोता िै हनपुहणका के दुखी जीिन के सामाहजक-पाररिाररक आधार को दृहिओझल करने का

हसलहसला, हजसकी अहन्तम पररणहत भरट्टनी-भट्ट-हनपुहणका प्रेम हरकोण की प्रहतष्ठा में िोती िै। भट्ट-भरट्टनी के परस्‍तपर हनिेददत प्रेम के बीच िि अिांहित िै। जाहिर िै अब िि न लोक में व्याप्त िै न समय-समाज में हस्‍तथत; िि न एक पृथक्

इकाई िै न स्‍त री; िै तो एक माध्यम- प्रेम को समपषण, सेिा और आत्मोत्सगष की भािना में हिलीन कर देने की हनहमि मार!

बेशक लेखक उसके बहलदान को सफल नारी-जीिन के उत्कषष की संज्ञा देते िैं दक “हनपुहणका स्‍त री जाहत का शृंगार थी, सतीत्ि की मयाषदा थी, िमारी जैसी उन्मागषगाहमनी नाररयों की मागषदर्शषका थी’‘, लेदकन सत्य यि िै दक हनपुहणका मूलतः

और अन्ततः सामाहजक-धार्मषक हिकृहतयों का हशकार थी। उसकी मृत्यु (बहलदान निीं) अमानिीयता के गिरा जाने का

प्रमाण िै।

आचायष हििेदी की हिशेषता िै दक िे दशषन की जमीन पर पैर रटका कर सृहि में स्‍त री-पुरुष की पूरकता को उनकी पार्थषि- ताि्हिक हभन् नता के जररए रेखांदकत करना चािते िैं - ‘‘परम हशि से दो तत्ि एक िी साथ प्रकट हुए थे - हशि और शहक्त। हशि हिहधरूप िैं और शहक्त हनषेधरूपा। इन्िीं दो तत्िों के प्रस्‍तपन्द-हिस्‍तपन्द से यि संसार आभाहसत िो रिा िै।

हपण्ड में हशि का प्राधान्य िी पुरुष िै और शहक्त का प्राधान्य नारी िै। ....जिाँ किीं अपने आप को उत्सगष करने की, अपने

आप को खपा देने की भािना प्रधान िै, ििीं नारी िै ....नारी हनषेधरूपा िै। िि आनन्दभोग के हलए निीं आती, आनन्द लुटाने के हलए आती िै।’’ अन्यर मिामाया के मुख से िे अपनी इसी धारणा की पुहि करते िैं दक “पुरुष हनःसंग िै, स्‍त री

आसक्त ; पुरुष हनिषन्ि िै, स्‍त री िन्िोन्मुखी; पुरुष मुक्त िै, स्‍त री बद्ध। पुरुष स्‍त री को शहक्त समझ कर िी पूणष िो सकता िै पर स्‍त री स्‍त री को शहक्त समझ कर अधूरी रि जाती िै।’’ उल्लेखनीय िै दक िर स्‍तथापना के समक्ष ‘क्यों’ जैसा नुकीला तार्कषक प्रश् न लगा कर िजारीप्रसाद हििेदी उसकी जाँच निीं करते, उसे अपौरुषेय मान तुरन्त हसर-माथे लगा लेते िैं। यिी कारण

िै दक उनका हििेचन अनुभिजन्य एिं मौहलक न िो कर शास्‍त रीय एिं आरोहपत जान पड़ता िै। िे स्‍तियं शास्‍त रीय मान्यताओं की अमानिीयता एिं हनस्‍तसारता से पररहचत िैं, दकन्तु शास्‍त र को प्रहतहष्ठत करने के मोि के चलते उन्िें समाज में पुनस्‍तथाषहपत भी करना चािते िैं। इसहलए चारों उपन्यासों में ज्ञान का हपटारा खोल पिले िे हसद्धान्त पक्ष की रचना

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करते िैं। इसके पश् चात् पारों के अन्तसषम्बन्धों एिं हनयहत की रचना

करना आसान िो जाता िै - बने-बनाए फामूषले के आधार पर सिाल िल करने के कौशल की नाईं।

हनस्‍तसन्देि आचायष हििेदी के समस्‍तत स्‍त री-पुरुष पार एक-दूसरे को पररपूणष भाि से समर्पषत िैं। आत्मदान को मनुष्य की

सिषश्रेष्ठ हसहद्ध मानने के कारण िे अपने आपको दहलत द्राक्षा की तरि लुटा देने में िी सुख पाते िैं क्योंदक मानते िैं दक

“अपने को हनःशेष भाि से दे देने से िी दुख जाता रिता िै, परमानन्द प्राप्त िोता िै।’’ हििाहित युगल िी निीं, प्रेम का

हरकोण रचते स्‍त री-पुरुष भी परस्‍तपर एक-दूसरे के हलए आत्मोत्सगष कर देना चािते िैं। प्रेम से लबरेज इन पारों में प्रमुख िैं

भरट्टनी-भट्ट-हनपुहणका हरकोण, अघोरभैरि-मिामाया-गृििमाष हरकोण। िजारीप्रसाद हििेदी की दृहि में प्रेम िर प्रकार के

कलुष से रहित अपने आप में सम्पूणष एिं सुन्दर रचना िै। “प्रेम एक और अहिभाज्य िै। उसे केिल ईष् याष और असूया िी

हिभाहजत करके िोटा’’ कर सकते िैं और हििेदी जी िैं दक ‘शोभा और शालीनता’ )स्‍त री) की उपेक्षा करने िाले व्यहक्त को

‘मनुष्य’ मानने से िी इनकार कर देते िैं। ऐसे व्यहक्त उनकी नजर में असुर िैं तो उसकी रक्षा करने में असमथष ‘कापुरुष’ भी

उन्िें स्‍तिीकार निीं। जाहिर िै प्रेम पगे ये पार सत् और सौन्दयष का अिलोकन एिं अिगािन करने के अहतररक्त अन्य किीं

ध्यान केहन्द्रत कर िी निीं पाते। आचायष जी की प्रेमहिषयक पररकल्पना बाणभट्ट की आत्मकथा में भरट्टनी और हनपुहणका

के हिपरीत युग्म में पररपुि ढंग से उभरी िै। िे दरबारी कहि की भाँहत पिले नाहयका के नखहशख सौन्दयष का िणषन करते

िैं, दफर उसमें ओज एिं शहक्त का रंग हमला कर दैिीय रूप दे डालते िैं। यिी निीं, मिाकाव्य के नायक की अहनिायष अिषता के अनुरूप उनकी नाहयकाएँ उच् चकुलोद्भि एिं धीरलहलत अथिा धीरप्रशान्त िोती िैं। इससे ऐसा अहभजात, कुलीन, सुसंस्‍तकृत मािौल बनाए रखने में सुहिधा रिती िै जिाँ दैहनक जीिन के श्रम और शोर की चख-चख सुनाई न पड़

सके। भरट्टनी उफष मौहखरी िंश के िोटे राजकुल में अपहृत की गई देिपुरा तुमरहमहलन्द की कन्या “चन्द्रदीहधहत हििेदी

जी की पिली नाहयका िै हजसके सौन्दयष हचरण में रीहतकालीन कहियों की तरि उन्िोंने कलम तोड़ कर रख दी िै - “मानो

हिधाता ने शंख से खोद कर, रजत रज से बाँध कर, कुटज कुंज और ससंधुिार पुष्पों की धिल काहन्त से सजा कर िी उसका

हनमाषण दकया िो।’’ यि हनष्कलुष सौन्दयष धमष का मूर्तषमान रूप बन कर पहतत को भी भक्त बनाने की क्षमता रखता िै तो

‘हरपुरभैरिी का दहक्षणमुख‘ बन कर करुणा की प्रहतमूर्तष के रूप में लोक में प्रहतहष्ठत िोता िै। अपनी सामाहजक हस्‍तथहत के

प्रहत सचेत यि नाहयका भीतर तक दपष से इतरा रिी िै, जो हिनम्रता का बाना पिन कर दो रूपों में अहभव्यक्त िोता िै - आत्मदया में हलपटा आत्मदम्भ तथा नेतृत्ि-लालसा में हिपी जड़ हनहष्ियता। भरट्टनी तमाम फुलाि के बािजूद कागजी

पार िै, जो हनपुहणका के हबना एक कदम भी निीं चल सकती। भट्ट के अनुसार िि अकेली, आयाषितष को मिाहिनाश के

गह्िर में हगरने से बचा सकती िै, लेदकन अजब हिडम्बना िै दक मौहखरी राजकुल से बािर आने के हलए उसे हनपुहणका

का आश्रय लेना पड़ता िै। दस्‍तयुओं िारा अपहृत कर हलए जाने पर उसमें “भगिान की बनाई और लाखों कन्याओं की

भाँहत‘‘ एक ‘मनुष्य कन्या‘ िोने का भाि जगा िै, दकन्तु यि ट्ांसफामेशन उसे हनपुहणका जैसी हस्‍त रयों से सम्िेदना और सृजनात्मकता के स्‍ततर पर निीं जोड़ता, जो सामाहजक लांिना एिं िैधव्य का अहभशाप ढोने के बािजूद अकेले अपने बूते

संसार की प्रहतकूलताओं से लोिा ले रिी िैं। उसे दकसी का प्रेम चुराने में कोई ग्लाहन िोती िै। राजकन्या िोने के कारण िर इहच्ित िस्‍ततु पर अहधकार जमाने की प्रिृहि गिरी जड़ें जमाए िै। िि भलीभाँहत जानती िै दक हनपुहणका भट्ट पर अनुरक्त

िै, लेदकन दफर भी भट्ट के प्रहत प्रणय-हनिेदन में सूक्ष्म सांकेहतकता - “तुम क्या समझते िो दक मैं रानी की मयाषदा पाने से

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सन्तुि िो गई हँ? न भट्ट, तुम्िारी इस पहिर िाक्-स्रोतहस्‍तिनी में स्नान

करके िी मैं पहिर हुई हँ। ....तुम्िारे हनष्कलुष हृदय को देख कर िी मुझे सेिा का प्रशस्‍तत पथ ददखा िै।‘‘ शारीररक- मानहसक-िैचाररक तीनों स्‍ततर पर िि इतनी अरहक्षत िै दक प्रत्येक संकटापन् न हस्‍तथहत में मूर्िषत िोकर या अहििेकपूणष कायष कर दूसरों की मुसीबत बढाए दे रिी िै, लेदकन दफर भी अन्त तक स्‍तियं को हिहशि एिं हििेकशील समझने का

अिंकार हिद्यमान िै, हजसे दो उद्धरणों िारा पुि दकया जा सकता िै। एक, मिामाया िारा जनशहक्त का आह्िान करने

तथा अप्रहशहक्षत सैहनकों िारा िी शरु से लोिा लेकर संकट पर हिजय पाने की खबर पर भरट्टनी की दपोहक्त - “आचायष भिुषपाद ने बताया दक इस अल्पकाल में िी मिामाया के लाखों हशष्य पुरुषपुर के आगे एकर िो गए िैं। इनमें अहधकांश अहशहक्षत और असंघरटत थे। मेरे हपता ने उनको संघरटत करने का काम कर ददया िै। ‘‘दूसरा उदािरण िै हनपुहणका के

अनुभिजन्य सत्य पर लकीर फेर कर अपने मत को प्रस्‍तथाहपत करना। जीिन भर आत्मदमन करते-करते हनपुहणका में

हिद्रोि की भािना अंकुररत हुई िै। िि अपनी अहि से धधक कर समूचे जंजाल को भस्‍तम कर देना चािती िै और चािती िै

दक स्‍त री जीिन के ‘मिासत्य‘ को ऊँचे ससंिासनों तक पहुँचा देना। लेदकन भरट्टनी अिरोध की भाँहत बीच में खड़ी िै। उसे

हनपुहणका का यि प्रलाप स्नायु दुबषलता का पररणाम लगता िै। िि उसकी भाँहत ‘मुखरा‘ बनने के दोष से स्‍तियं को

कलंदकत भी निीं करना चािती। अतः हनणाषयक मत दे डालती िै दक “बन्धन िी सौन्दयष िै, आत्मदमन िी सुरुहच िै, बाधाएँ िी माधुयष िैं। निीं तो यि जीिन व्यथष का बोझ िो जाता। िास्‍ततहिकताएँ नग् न रूप में प्रकट िोकर कुहत्सत बन जाती िैं। ...भारतीय समाज ने बन्धन को सत्य मान कर संसार को बहुत बड़ी चीज दी िै।‘‘

5. हनष्कषष

किा जा सकता िै दक ‘ददव्या और बाणभट्ट की आत्मकथा में पुरूष रचनाकारों ने स्‍त री को केिल एक भोग्या बनाया िै, भले िी उसका सम्बन्ध राजघराने से िो। ददव्या और भरट्टनी दोनों िी इस हनयहत से दो-चार िोती िैं। एक स्‍त री के रूप में

सम्मान पाना आज की स्‍त री के हलए भी दूर की कौड़ी िै। परन्तु स्‍त री जीिन की तमाम सीमाओं के बािजूद यशपाल स्‍त री

की आकांक्षाओं को समझ सकने में समथष हुए िैं। ददव्या के माध्यम से उन्िोंने अपनी शतों पर जीने िाली स्‍त री की सशक्त

िहि का हनमाषण दकया िै, जो काहबले तारीफ िै। भरट्टनी का चररर ददव्या के चररर की भाँहत स्‍त री अहधकारों की सशक्त माँग करने की िहि का हनमाषण निीं कर पाता। िि पारम्पररक उच् चादशों यथा स्‍त नेि,दया,ममता के आिरण में िी फँसकर रि जाता िै। इसके बािजूद स्‍त री-पुरूष प्रेम सम्बन्धों को यि उपन्यास एक उँचाई पर ले जाता िै जिाँ स्‍त री-पुरूष दोनों

एक-दूसरे के पररपूरक िैं। उल्लेखनीय िै दक भरट्टनी को प्रयासपूिषक गढने के बािजूद हििेदी जी उसे न हनष्कलुष हृदय दे

पाए िैं, न प्रेम में आत्मोत्सगष करने की दृढता। भट्ट के प्रहत उसकी ‘मनोिारी जह डमा‘ प्रेम निीं, आसहक्त िै हजसके मूल में

िै अपने राज्य सुरहक्षत पहुँच जाने तक भट्ट को मुट्ठी में बाँधे रखने का जतन। बेशक मिामाया से संिाद करते हुए िि

स्‍तिीकार करती िै दक भट्ट से हमलने के बाद िी उसे जीिन में पिली बार साथषकता का अनुभि हुआ िै, लेदकन इसके अथष को गुनने-बुनने का हििेक पैदा निीं कर पाई िै। यिाँ लेखकीय िस्‍ततक्षेप भी दोषी िै। आचायष हििेदी प्रेम को सेिा, समपषण एिं हनष्ठा जैसी अमूिष मनोिृहियों में गूँथ कर न केिल उसके उच््ल िेग को बाहधत करते िैं, बहल्क एक पक्ष हिशेष-स्‍त री - को िी इनके दियान्ियन का दाहयत्ि सौंपते िैं। इसी एकांगी दृहि के कारण िे अपने पारों हिशेषकर कुलीन नाहयकाओं को

हनजता एिं भास्‍तिरता निीं दे पाए िैं।

References