• No results found

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

N/A
N/A
Protected

Academic year: 2023

Share "HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन "

Copied!
10
0
0

Loading.... (view fulltext now)

Full text

(1)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

हवषय हहन्दी

प्रश्नपत्र सं. एवं शीषषक P 11 :स्त्री लेखन

आकाइ सं. एवं शीषषक M8 :

नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

आकाइ टैग HND_P11_M8

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश्नपत्र-समन्वयक प्रो. रोहहणी ऄग्रवाल आकाइ-लेखक प्रो. रोहहणी ऄग्रवाल आकाइ समीक्षक प्रो. कैलाश देवी ससह भाषा सम्पादक स्तुहत राय

पाठ का प्रारूप 1. पाठ का ईद्देश्य 2. प्रस्तावना

3.

नवजागरण और स्त्री हशक्षा का प्रश्न

4.

नवजागरण कालीन लेहखकाएँ

4.1. ऄज्ञात हहन्दू महहला

4.2. दुहखनी बाला

4.3. बंग महहला

4.4. हशवरानी देवी

4.5. सुभद्राकुमारी चौहान 4.6. ईषादेवी हमत्रा

5. हनष्कषष

(2)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

1. पाठ का ईद्देश्य

आस पाठ के ऄध्ययन के ईपरान्त अप-

 नवजागरणकालीन स्त्री लेखन की मुख्य बातें जान सकेंगे।

 ‘सीमन्तनी ईपदेश’ और बंगमहहला के रचनाओं में स्त्री प्रश्नों पर ईनके हवचार जान सकेंगे।

 हशवरानी देवी एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के हवचारों की तुलना कर सकेंगे।

 अज के स्त्री हवमशष के पररप्रेक्ष्य में हहन्दी नवजागरणकाल के स्त्री लेखन का मूलयांकन समझ सकेंगे।

2. प्रस्तावना

ईन्नीसवीं सदी के पूवाषर्द्ष में राजा राममोहन राय के अहवभाषव से नवजागरण अन्दोलन का सूत्रपात हुअ और भारत में

अधुहनक बोध का ईदय हुअ । 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना , और फिर सती प्रथा हनषेध ऄहधहनयम ने न केवल हाहशए पर जीवन जीती स्त्री की दारुण हस्थहत को हवचार का मुद्दा बनाया , बहलक ऄंग्रेजी हशक्षा, ज्ञान-हवज्ञान, पाश्चात्य सभ्यता और औद्योहगक संस्कृहत के अलोक में मध्यकालीन बोध की जड़ता की पड़ताल भी की। बंगाल और महाराष्ट्र हवशेष रूप से नवजागरण अन्दोलन के केन्द्र रहे, जहाँ हस्त्रयों और दहलतों की हस्थहत में सुधार के हलए ऄनेक सामाहजक- राजनीहतक अन्दोलन चलाए गए। इश्वरचन्द्र हवद्यासागर ,देवेन्द्रनाथ टैगोर , केशवचन्द्र सेन , फदरोहजयो, रामकृष्ण परमहंस, हववेकानन्द , स्वामी दया नन्द सरस्वती , जोहतबा िुले , गोहवन्द रानाडे सरीखे समाजसुधारकों ने हस्त्रयों की

हस्थहत में सुधार के हलए स्त्री हशक्षा, हवधवा हववाह और पैतृक सम्पहि में स्त्री के कानूनी ऄहधकार का समथषन फकया ।वहीं

हववाह संस्था को जड़ बनाने वाली कुरीहतयों यथा बालहववाह, बहुहववाह, ऄनमेल हववाह, कुलीन हववाह, दहेज प्रथा का

भी डट कर हवरोध फकया। दहलतों की हस्थहत में सुधार के हलए जोहतबा िुले , ऄम्बेडकर और पेररयार का योगदान ऄहवस्मरणीय रहा। जोहतबा िुले ने ब्राह्मणवाद के हवरोध में न केवल सत्यशोधक समाज की स्थापना की , बहलक ऄपनी

पत्नी साहवत्रीबाइ िुले के साथ हमल कर बाल हवधवाओं और पररवार से हतरस्कृत हस्त्रयों को चेतन एवं अत्महनभषर बनाने

के हलए ‘बालहवधवा प्रसूहत गृह’ (1853) एवं ऄनाथालय (1863) की नींव भी रखी। आस कड़ी में पं. रमाबाइ का योगदान भी हवशेष ईललेखनीय है हजन्होंने शारदा सदन ( 1889) और कृपा सदन ( 1898) के माध्यम से पहतत हस्त्रयों के हलए अश्रम बनाने के साथ-साथ ,हस्त्रयों को अर्थथक रूप से अत्महनभषर बनाने के हलए मेहडकल की उँची पढ़ाइ और पाश्चात्य हशक्षा सुलभ कराए जाने की माँग भी की।

हहन्दी नवजागरण, बांग्ला एवं मराठी नवजागरण की तुलना में वैचाररक एवं अन्दोलनात्मक दोनों दृहियों से समृर्द् नहीं

कहा जा सकता। भारतेन्दु के अहवभाषव के साथ हहन्दी में नवजागरण की शुरुअत हुइ । आस दौरान साहहत्य और समाज दोनों जगह मध्यकालीन बोध से टकराने वाली अधुहनक दृहि क्रमशः अकार लेती फदखाइ पड़ी। वहाँ धमाषन्धता और वैचाररक जड़ता का हवरोध था, हचन्तन सम्पन्न समतामूलक समाज का सपना था, रूफढ़यों का हवरोध कर व्यहि की सिा

को प्रहतहित करने की कामना थी, लेफकन तमाम कोहशशों के बावजूद परम्पराके प्रभाव से स्वयं को मुि कर पाना सम्भव नहीं हो रहा था। समाजसुधार अन्दोलन की रौ में बह कर हहन्दी नवजागरण स्त्री मुहि की बात तो करता था , लेफकन स्त्री को पुरुष के समकक्ष एक स्वायि मानव आकाइ के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता था। यही कारण है फक वह स्त्री को

सहानुभूहत देता है, मुहि के नाम पर ईसकी बेहड़यों और बन्धनों को थोड़ा हशहथल कर देता था , लेफकन ईसे हववेकशील

(3)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

अत्महनभषर मनुष्य बनने का ऄवसर नहीं देता था। स्त्री ऄभी भी ईसके

हलए मनुसंहहता के हनदेशों-अदेशों से संचाहलत होने वाली ’वस्तु’ थी। वस्तुतः स्त्रीवादी दृहि से नवजागरण अन्दोलन के

आन ऄन्तर्थवरोधों को पढ़ना बेहद जरूरी हो जाता है , खासतौर पर आसहलए भी फक रचनाकार की लैंहगक हस्थहत ईसके

सरोकारों में भी पररवतषन ला देती है।

3. नवजागरण और स्त्री हशक्षा का प्रश्न

नवजागरण अन्दोलन का मुख्य एजेण्डा स्त्रीहशक्षा का प्रसार रहा था। समाजसुधारकों-हचन्तकों -साहहत्यकारों के बीच स्त्री-हशक्षा के पाठ्यक्रम को लेकर चली लम्बी बहस दरऄसल स्त्री को लेकर ईनकी बुहनयादी दृहि को ही स्पि करती है।

‘देवरानी हजठानी की कहानी’ (1870) और ‘भाग्यवती’ (1887) में स्त्री-हशक्षा हेतु हजन हवषयों को स्वीकृहत दी गइ,वे हैं - सी लाइ-बुनाइ-कढ़ाइ, पाककला, गृहहवज्ञान, व्याकरण एवं छन्दरचना, प्रारहम्भक गहणत एवं भूगोल। ये हवषय स्त्री को

देश का चेतन नागररक भले न बनाएँ , ईसके स्त्रीत्व को पुि कर अदशष पत्नी और अदशष माँ बनने की दीक्षा जरूर देते हैं

,भारतेन्दु ने ‘भारतवषष की ईन्नहत कैसे हो सकती है’ हनबन्ध में स्पि ईद्घोष फकया –“लड़फकयों को भी पढ़ाआए फकन्तु ईस चाल से नहीं जैसे अजकल पढ़ाइ जाती हैं, हजससे ईपकार के बदले बुराइ होती है। ऐसी चाल से ईनको हशक्षा दीहजए फक वह ऄपना देश और कुल धमष सीखें। पहत की भहि करें और लड़कों को सहज में हशक्षा दें।’’ यही नहीं , हवधवा हववाह के

प्रश्न पर बंफकमचन्द्र चटजी ने चुप्पी ऄपना कर ऄपना मत फदया - ’’जो हवधवा हववाह करती है , ईनको पाप तो नहीं, पर जो नहीं करतीं, ईनको पुण्य ऄवश्य होता है’’। जाहहर है स्त्री की अर्थथक अत्महनभषरता का सवाल भारतेन्दु के हचन्तन से बाहर का हवषय हो जाता है। आसके ठीक हवपरीत ईन्हीं के कालखण्ड में हस्थत ईनकी ‘धमषगृहीता’ महललकादेवी

‘कुमुफदनी’ ( सम्भाहवत रचनाकाल सन् 1878 - 1880 के बीच) नामक नाटक में हवधवा हववाह का समथषन करती हैं।

महललकादेवी हहन्दी साहहत्य में संजीदा रचनाकार के रूप में नहीं ईभरतीं। ईनकी मूल संवेदना रोमाहण्टक प्रेम की प्रहतिा

करना है। जाहहर है आस परम्परागत हवषय को वे पारम्पररक ढंग से प्रेम-हबछोह-हमलन के रूढ़ कथा ढाँचे के अधार पर ऄहभव्यि कर सकतीं थीं। लेफकन नाहयका को हवधवा बना कर संयोग-संघषष-प्रहतरोध की मार्थमक कथा बुनते हुए वे जब ऄभीहप्सत लक्ष्य (नायक-नाहयका हमलन) तक पहुँच ती हैं तो ईनकी रचना औसत दजे की प्रेम-कहानी न रह कर ज्वलन्त सामाहजक मुद्दे के पक्ष में दृढ़तापूवषक ऄपनी व्यहिगत राय दजष करने वाली लेहखका का नैहतक संकलप बन जाती है। लेफकन महललका जैसी रचनाकार हहन्दी साहहत्य के मुख्यधारा में नहीं हैं। वे हाहशए पर डाल कर भुला दी जाने वाली शहख्सयत हैं।

आसे हहन्दी पट्टी का हवहशि चररत्र ही कहा जा सकता है फक जड़ सामाहजक वयवस्था पर हनमषम प्रहार करने वाली हहन्दी

लेहखकाओं की रचनाओं को ईनके समय में ही जमींदोज कर फदया गया , जबफक ईनकी समकालीन मराठी रचनाकार ताराबाइ हशन्दे और पं0 रमाबाइ ऄपनी रचनाओं के माध्यम से हहन्दू धमषग्रथों के स्त्रीहवरोधी स्वरूप को अक्रामक लहजे

में चुनौती देती रहीं। महललका के ऄहतररि हजन नवजागरणकालीन स्त्री रचनाकारों की रचनाओं को हवलुप्त कर फदया

गया, वे हैं - ऄज्ञात हहन्दू महहला (सीमन्तनी ईपदेश) और दुहखनीबाला (सरलाः एक हवधवा की अत्मजीवनी , 1916)।

हशवरानीदेवी और सुभद्राकुमारी चैहान ऐसे ईदाहरणों के रूप में सामने अती हैं हजन्हें एक शाहतर चुप्पी (प्रेमचन्द की

पत्नी) तथा मनमाने प्रोजेक्शन (खूब लड़ी मदाषनी की गाहयका) के अधार पर हनरन्तर चचाष से बाहर रखा गया।

(4)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

4. नवजागरण कालीन लेहखकाएँ

4.1. ऄज्ञात हहन्दू महहला

हहन्दी नवजागरण में स्त्री-प्रश्न पर सहानुभूहतपूवषक हवचार करने की बा त हुइ, लेफकन पुरुष वचषस्व बनाए रखने के हलए स्त्री रचनाकारों से ईनका नाम छीन लेने में भी गुरेज नहीं हुअ। ऄज्ञात हहन्दू महहला और बंगमहहला, ऐसे दो ईदाहरण हैं।

ईललेखनीय है फक सन् 1882 में रहचत ‘सीमन्तनी ईपदेश’ पुस्तक हह न्दी पाठकों को 1984 में डा. धमषवीर की खोज के

पररणाम के रूप में ईपलब्ध हुइ , जबफक पं0 रमाबाइ सन्1887 में ऄपनी पुस्तक ‘हहन्दू स्त्री का जीवन’ में आसका ईललेख कर आसके महत्व को रेखांफकत कर चुकी थीं। ऄज्ञात हहन्दू महहला पंजाब प्रा न्त की बालहवधवा थीं , हजन्होंने अयषसमाज के बढ़ते प्रभाव के कारण न केवल स्त्री हशक्षा प्राप्त की , बहलक प्रचारक के तौर पर अयषसमाज के सुधार अन्दोलन को

बढ़ाने में मदद भी की। हस्त्रयों के ईद्बोधनाथष रहचत आस पुस्तक में लेहखका ने चार प्रमुख मुद्दों की ओर समाज का ध्यान खींचा। पहला , हहन्दू धमषग्रन्थों का स्त्रीहवरोधी स्वरूप ; दूसरातदयुगीन समाज में हवधवा की दुगषहत ; तीसरा, हववाह संस्था का दमनकारी स्वरूप; और चौथा, हस्त्रयों की अभूषणहप्रयता का हमथ। ऄज्ञात हहन्दू महहला की ताकत है तीखे तुशष तेवर में ऄपनी बात कहना। चूँफक वे मूलतः प्रचारक थीं, और संवाद स्थाहपत करना ईनका ऄहन्तम लक्ष्य था,आसहलए सम्प्रेष्य मुद्दे पर शास्त्राथष कर वे जनमत को अन्दोहलत और प्रभाहवत करने की चेिा करती थीं । वणषव्यवस्था के सवाल को छुए हबना ईन्होंने वे पहले आस शास्त्रसम्मत तथ्य को सामने ला या फक स्त्री-पुरुष सभी की ईत्पहि ब्रह्म से हुइ है ; फिर यहीं से सवाल को वाद-हववाद-संवाद का स्थल बना डाला फक फिर यह कैसा आन्साि है फक ’’अधा हजस्म मदष का औरत के मरने से दूसरी शादी कर सके, और अधा हजस्म औरत का शादी बगैर जेलखाने में मार फदया जाए?’’ व्यहिगत तौर पर वे हवधवा हववाह की समथषक नहीं हैं , क्योंफक हववाह को स्त्री की ऄहस्मता को दहमत करने वाली संस्था मानती हैं। वे खुल कर कहती हैं – “शादी से बड़ी-बड़ी तकलीिें ईठानी पड़ती हैं’’ तथा “हहन्दुस्तानी औरतों को तो अजादी फकसी हालत में

नहीं हो सकती। बाप , भाइ, बेटा, ररश्तेदार - सभी हुकूमत करते हैं। मगर हजस कद्र खाहवन्द जुलम करता है , ईतना कोइ नहीं करता। लौण्डी तो यह सारी ईम्र सब ही की रहती है , पर शादी करने से हबलकुल जरखरीद हो जाती है।’’ (सीमन्तनी

ईपदेश, पृ0 84)

चूँफक ऄज्ञात हहन्दू महहला ने स्त्री को हववाह संस्था की जकड़न से मुि एक स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में देखने का हववेक ऄर्थजत कर हलया, आसहलए ईन्होंने सधवाओं की रोजमराष की गहतशीलता को बाहधत करते भारी-भरकम जेवरों और सुहाग-हचह्नों के हवरुर्द् बोलने का साहस बटोरा। हसर से पैर तक अभूषणों से लदी स्त्री ईनके हलए न सौन्दयष के मानक गढ़ सकीं , न पहत की सम्पन्नता की हमसाल पेश कर पाइ , बहलक ईन्होंने ईन्हें कैदी या ढोर-डंगर की याद फदलाइ हजसे

माहलक द्वारा बोझ से लाद फदए जाने पर भी काम करते रहना पड़ता है। हतरस्कारपूणष ईपहास के साथ वे एक-एक जेवर का पररचय देती चलती हैं। मसलन हाथी के पाँव की साँकल सरीखी पाँवों की साँकल; कैदी की हथकड़ी जैसे हाथों के कड़े;

नकेल सरीखी नाक की जंजीर। अभूषण-चचाष के बाद वे स्त्री समाज को सवालों से रू-ब-रू कराना चाहती हैं। जेवरों को

सुहाग के साथ जोड़ने की कुरीहतयों की हनरथषकता ; और ऄपनी मुहि के हलए ऄकेले लड़ाइ लड़ने की नैहतक क्षमता

फदखाना चाहती है। ताराबाइ हशन्दे की तरह बेहद कड़वाहट और अक्रामकता के साथ वे धमषशास्त्रों और पुरुष वचषस्व के

हखलाि अग ईगलती हैं फक सुहाहगन हस्त्रयों को यफद ये सब जेवर धारण करने की बाध्यता है तो ‘सुहागे मदों’ को क्यों

(5)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

नहीं; क्या हहन्दुस्तानी मदों के प्राण हस्त्रयों द्वारा धारण फकए गए जेवरों

में ही हनहहत हैं? यफद हाँ, तो ब्याह होने से पहले तक वह फकसके सगुन करने से जीता रहता है और स्त्री की मृत्यु के साथ क्यों नही मर जाता? आस तकष के बाद हस्त्रयों से संगरठत होकर ऄपनी लड़ाइ लड़ने की ऄपील है – “तुमको भी चाहहए जो

खराब दुख देने वाली रस्म हैं, ईनको तोड़ ऄच्छी रस्म हनकालो...तुम ईनकी पैरवी न करो। जैसी ईसकी ऄकल थी, वैसी

ईन्होंने रस्म हनकाली। परमेश्वर की कृपा से तुम भी ऄकल रखती हो ...खूब याद रखो , जब तक खुद आन बेहड़यों को न ईतारोगी... जब तक खुद ऄपने उपर रहम न करोगी , मुमफकन नहीं फक हहन्दुस्तानी तुम पर रहम करें।’’ (पृ . 51- 56)

4.2. दुहखनी बाला

’सीमन्तनी ईपदेश’ में हजस संयम और गम्भीरता का ऄभाव है , वह तैंतीस वषष बाद प्रकाहशत ‘सरला: एक हवधवा की

अत्मजीवनी’ शीषषक औपन्याहसक कृहत मे पूरे चरमोत्कषष के साथ फदखाइ देता है। स्त्री की नारकीय हस्थहत के हलए पुरुष ऄथवा धमषशास्त्रों को दोषी ठहराने की बजाय यह पुस्तक हपतृसिात्मक व्यवस्था की अन्तररक संरचना की जाँच कर लेना चाहती है, जो जन्म या जन्म से पूवष गभष में स्त्री-पुरुष की हीनता-श्रेिता का हनधाषरण करती है। लेहखका दुहखनीबाला

ने दुख के सागर में डूबते-ईतराते आस पड़ताल को ऄंजाम नहीं फदया है , बहलक पहले दुख को हवश्लेषण के साथ गूँथ कर ऄन्तदृषहि के रूप में पाया है और फिर पहश्चमी ज्ञान और भारतीय शास्रों््थ में रुँधे-गुँधे पूवषग्रहों की हनस्सारता बताइ है।

स्त्री-पुरुष समानता की ऄवधारणा को प्रहतपफदत करते हुए वे स्त्री-पुरुष के बीच हछड़ी वैचाररक लड़ाइ को बढ़ावा नहीं

देती, बेहद हनस्संग दृहि से स्त्री की ईपेहक्षत हस्थहत की ओर संकेत कर देती हैं। अक्रामक और हावी होने के हठ का ऄभाव ईनकी रचना को वस्तुपरक एवं तकषसंगत बना देता है। यह एक ऐसी हवहशिता है जो फकसी एक खास पाले में खड़े होकर रची गइ ईस युग की ईद्बोधनात्मक रचनाओं से पृथक् ऄपनी कोरट स्वयं बनाती है।

'सरला: एक हवधवा की अत्मजीवनी’ की महिा अत्मकथा शैली में ऄपने वैधव्य पर क्रन्दन कर सामाहजक सहानुभूहत बटोरने में नहीं है। वस्तुतः यह अत्मकथा है ही नहीं। यह हडबेट और िैण्टेसी जैसी नइ कथा-शैली का ईपयोग करके स्त्री- पुरुष की समानता की ऄवधारणा को सी र्द् करने के हलए रची गइ औपन्यासी क रचना है। हडबेट आसहलए , ताफक युगीन हवसंगहतयों, यथाहस्थहतवाफदयों और वैचाररक संकीणषताओं से हजरह करके क्रमशः ईस दूसरे पक्ष को ईद्घारटत फकया जा

सके ,हजसे वे हठपूवषक देखने से आन्कार करते हैं। िैंटेसी आसहलए ताफक समसामहयक जड़ताओं का ऄहतक्रमण कर एक

‘मनुष्य लोक’ की रचना का ‘अनन्द’ पाया जा सके जहाँ स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व सही मायने में लैंहगक लोकतन्त्र की स्थापना करते हों। लेहखका के ऄनुसार “मनुष्य का किषव्य है फक वह ऄपने से श्रेि कोइ जीव ईत्पन्न करे और जब तक वह यह न कर ले , ईसे यह समझना चाहहए फक ईसने ऄपने ईद्देश्य की हसहर्द् नहीं की।’’ (पृ 0 80) जाहहर है फक यह पुस्तक एक नए युग की रचना का अह्वान है। स्त्री को पुरुष -हनरपेक्ष लैंहगक आकाइ के रूप में देखने का अग्रह करती यह हहन्दी की पहली स्त्रीवादी रचना है हजसमें रुकैया सखावत हुसैन , ताराबाइ और ऄज्ञात हहन्दू महहला की तरह न पुरुषों

के प्रहत घृणा का सैलाब है और न मीराबाइ की तरह अदशष के ऄमूतषन में स्वप्न-पुरुष शा हसत ‘स्वतन्त्र’ स्त्री बनने की

दुबषलता। छोटे भाइ मोहन के साथ लेहखका स्त्रीहवषयक प्रश्नों पर बहस का अयोजन करती हैं , लेफकन वास्तव में यह बहस/संवाद नहीं, हुँकारा भर कर पुरुष-पक्ष को धैयषपूवषक सुनने-जानने की गम्भीर कोहशश हो जाती है। यहाँ न शास्त्राथष

(6)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

का दम्भ है , न प्रहतपक्ष के प्रहत घृणा। ईदारवादी हपता की परवररश के

कारण मोहन में बहन को ‘मनुष्य’ समझने का संवेदनशील भाव है। ऄपनी श्रेि हस्थहत के कारण ईसमें पुरुषोहचत ऄहम्मन्यता तो है, लेफकन वह ईर्द्त लम्पटता बन कर स्त्री की गररमा का हनन नहीं करती। हाँ , सृहि के हवकास-क्रम में

स्त्री को जैहवक-बौहर्द्क-मानसी क सभी दृहियों से हीन प्राणी मानने की हठधर्थमता से ऄवश्य ग्रस्त है। लेहखका मानती हैं

फक स्त्री को हीन बताने वाला समाजशास्त्रीय हवधान चूँफक तकष द्वारा ऄपनी पैरवी नहीं कर सकता , आसहलए हसर्द्ान्तों के

खण्डन-मण्डन का कुहासा रच कर वह पूरे पररदृश्य को ऄस्पि और ईलझा बनाए रखना चाहता है।

4.3. बंग महहला

ऄज्ञात हहन्दू महहला और दुहखनी बाला के हवपरीत बंगमहहला न केवल तदयुगीन साहहहत्यक पररदृश्य पर ईपहस्थत थीं , वरन् समकालीन लेखकों-अलोचकों-पाठकों के बीच गररमामयी हवदुषी एवं प्रगहतशील लेहखका के रूप में लोकहप्रय भी

थीं। हवशेष रूप से अचायष शुक्ल ने ईनके हलखे हर शब्द - मौहलक एवं ऄनूफदत - को प्रकाश में लाने और ईसे एक सकारात्मक पररप्रेक्ष्य देने में जरा भी ढील नहीं फदखाइ। अचायष शुक्ल अद्यन्त बंगमहहला को भारतीय नाररयों के किषव्य के प्रहत अस्थावान लेहखका के रूप में महहमामहण्डत करते रहे। वे भी ईनकी तरह मानती हैं फक स्त्री हशक्षा का अत्यहन्तक लक्ष्य स्त्री को नम्र-सलज्ज और शान्त बना कर गृहकायों में दक्ष करना तथा ‘सुमाता’ बनने की दीक्षा देना है। ‘सुमाता’ बनने

के हलए जरूरी ऄहषताएँ हगनाना भी वे नहीं भूलतीं – ‘ईन्नत चररत्र , ईदार हृदय , सत्यवाफदनी, सुहशहक्षत और स्वधमषपरायणा’। (बंगमहहला ग्रन्थावली, पृ0 114) दरऄसल सारी बात ‘स्वधमषपरायणा’ होने पर रटक जाती है। यह वह हबन्दु है जो स्त्री के हलए हवहध-हनषेधों की सूची तैयार करता है और ‘पुँश्चली’ कही जाने वाली द्रौपदी में भी पाहतव्रत्य का

चरम ढूँढ़ता है। ऄज्ञात हहन्दू महहला के हवपरीत ध्रुव पर खड़ी होकर बंगमहहला हस्त्रयों का ईद्बोधन कर रही हैं। एक ,

“हस्त्रयों को ईहचत है फक लज्जा और नम्रता को सदा ऄपना अभूषण समझें। हजस स्त्री को लज्जा नहीं है, वह स्त्री पद पाने के

योग्य नहीं है।’’ (पृ0 103) ; दूसरा, “स्त्री जाहत का बहुत बोलना और हँसना ऄनुहचत है। आससे ईनके दुगुषण प्रकट होते हैं।’’

(पृ0 104) तीसरा, “हस्त्रयों को चाहहए फक कभी फकसी से तकष न करें। तकष करना बहुत ही बुरी बात है। ...पूज्य व्यहि यफद कुछ ऄनुहचत भी कहे तो ईसका ईिर न देना चाहहए।’’ (पृ 0 104)चौथा, “हस्त्रयों का सतीत्व धमष ही प्रधान धमष है।

...ऄकलंक सती पदवी बहुत यत्न से हमलती है।’’ पाँचवाँ , सतीत्व धमष की रक्षा करने हेतु पाहतव्रत धारण करना चाहहए।

जो रमणी पहत पद में तन-मन और वचन से ऄपना मन लगाती है , वह सती हशरोमहण है।’’ (पृ 0 105) आसके बाद पहत- सेवा (पहत वशीकरण मन्त्र) के हवस्तृत वणषन के हलए ‘पहतसेवा’ (1905) हनबन्ध है। कथावाचन शैली में रचा गया यह हनबन्ध (भावानुवाद) सत्यभामा के आस प्रश्न का जवाब है फक “हे द्रौपदी! तुम देवतुलय महावीर पाण्डवों से कौन से बताषव करती हो जो वे लोग तुम पर कभी रुि नहीं होते, वरन् आतना ऄपररहमत ऄनुराग फदखलाते हैं? आसका कारण क्या है? तुम व्रत, ईपवास, संगमाफद में स्नान, होम, मन्त्र, औषहध आनमें से कौन से ईपाय के प्रयोग से ईन लोगों को वशीभूत करने में

समथष हुइ हो? सो हमसे कहो।’’ (पृ 0 111) आस प्रश्न के ईिर में काम , क्रोध, ऄहंकार का पररत्याग कर , ऄपनी हस्ती को

मरटयामेट कर, पहत के स्नान-भोजन-शयन से पूवष स्नान-भोजन-शयन अफद न करने और पहत को प्रसन्न रखने के ‘भारतीय’

नुस्खे हैं।

(7)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

ये ठीक वही ईद्गार हैं जो समानता और मुहि के स्वप्न देखती भारतीय स्त्री को पुनः कारागार में धकेलने के हलए हहन्दुत्व एवं सांस्कृहतक पुनरुत्थान के नाम पर कट्टरपहन्थयों ने ‘अदशष हहन्दू स्त्री’ का मुलम्मा चढ़ा कर गढ़े हैं। हर ऄवस्था में हचत और पट का खेल रचाते हुए स्त्री को ठोंक-पीट कर फिट कर देना आस दौर के रूफढ़वादी संकीणष लेखन का सत् ईद्देश्य रहा

है। बंगमहहला आस का ऄपवाद नहीं। फिर भी कहीं-कहीं लगता है वे ऄपने लेखन में क्रन्दन को घुट-घुट कर पीने वाली

औसत स्त्री की प्रहतहनहध मात्र हैं। कथन की पुहि के हलए ईनका यह विव्य हलया जा सकता है – “नारी को पहत के हवयोग होने पर सवषत्याहगनी बन कर ब्रह्मचयष का पालन करना पड़ता है।’’ ‘पड़ना’ शब्द हार्ददकता का सूचक नहीं है , बाहरी

ताकतों द्वारा बलपूवषक फकन्हीं ऄहप्रय एवं प्रहतकूल पररहस्थहतयों का अरोपण करता है हजनका भीतरी कमजोररयों या

परम्परागत दबावों के चलते प्रहतकार सम्भव नहीं। आस दृहि से देखें तो ईनकी कहाहनयों - दुलाइवाली और हृदय की

परीक्षा - की हस्त्रयाँ प्रत्यक्षतया पहतभहि की हमसाल पेश करती हैं , लेफकन कदम-कदम पर तुनकहमजाज ऄहंहनि स्वाथी

पहत से भयभीत भी हैं। तब ऄपने को सी कोड़ कर लगभग ऄदृश्य कर लेने की दीक्षा को हशकायत के सुर में ‘भाइ-बहन’

कहानी में देखा जा सकता है फक “तुम्हें (लड़की को) सब चीज में भैया से कमती हहस्सा लेना चाहहए।’’ (पृ0 8)

4.4. हशवरानी देवी

प्रेमचन्द: घर में’ तथा ‘नारी हृदय’ कहानी संग्रह की कुछेक कहाहनयों के अधार पर यफद हशवरानी देवी का मूलयांकन फकया जाए तो वे बीसवीं सदी के प्रारहम्भक दशकों की पहली लेहखका हैं जो ऄहभमानपूवषक स्वयं को ‘ईद्दण्ड’ कहती हैं

और पहत ईन्हें ‘योर्द्ा’ स्त्री। हशवरानी देवी लेखन में प्रेमचन्द का क ण्रास्ट रचती हैं। दहेज और ऄनमेल हववाह जैसी

कुप्रथाओं के दुष्पररणामों को लेकर प्रेमचन्द ‘हनमषला’ जैसा भावहवगहलत और करुण ईपन्यास हलखते हैं तो हशवरानी देवी

‘साहस’ जैसी ईद्बोधनात्मक एवं सफक्रयता से भरपूर कहानी। कहानी-लेखन हशवरानी देवी के हलए अत्माहभव्यहि का

माध्यम मात्र नहीं है; समाज के नवहनमाषण के महत् दाहयत्व का गम्भीर हनवषहण है। आसहलए कहानी के ऄन्त में वे ऄपनी

हर हवद्रोहहणी नाहयका की पीठ ठोंकती हैं – “तुमने अयषदेहवयों का मुख ईज्ज्वल कर फदया’’ और पाठकों से ईन्हें रोल मॉडल बना लेने का प्रच्छन्न ऄनुरोध भी करती हैं – “सारे शहर में रामप्यारी की प्रशंसा हो रही थी... वाह , कैसी फदलेर लड़की है। ऐसी ही देहवयों से जाहत का मुख ईज्ज्वल होता है। .... .भोली भेड़-बकररयाँ जो ऄपना ईर्द्ार स्वयं नहीं कर सकतीं, ईनसे क्या अशा की जा सकती है ?’’ वस्तुतः ऐसी प्रेरणादायक कहाहनयाँ हलखना हशवरानी देवी का ‘नशा’ है।

प्रेमचन्द ईन्हें लाख मना करते रहें फक साहहत्य साधना के नाम पर वे क्यों ऄपना ‘खून जला’ रही हैं, लेफकन हशवरानी तो

मानो खून जलाने को ही तैयार बैठी हैं। पहत का ईलाहना – “पर तुम कहाँ बाज अओगी” - ईन्हें रोक नहीं सकता। ईसकी

दो टूक काट ईनके पास मौजूद है – “बाज अते रहे हैं, कब तक बाज अते रहें।’’ (प्रेमचन्द घर में , पृ0 76) दरऄसल यही

ईर्द्तता हशवरानी के व्यहित्व को मौहलकता , उजषहस्वता और हनजता देती है जो ‘वधू परीक्षा’ और ‘समझौता’ कहाहनयों

में ऄपनी पराकािा पर पहुँच जाती हैं। ‘वधू परीक्षा’ कहानी में हशवरानी मीठी चुटफकयाँ ले-ले कर घर की औरतों की

अड़ में दहेज के नाम पर बेटे की सौदेबाजी करते पुरुषों और सतीत्व के नाम पर पुरुषों को कामुक ऄदाओं से ररझाने की

हशक्षा-दीक्षा लेतीं-देतीं लड़फकयों को िटकारने में कोइ कोर-कसर नहीं छोड़तीं। लेफकन यह ईनका ऄभीि नहीं है। वे तो

नाहयका हनमषला के साथ खड़ी होकर पहले हववाह संस्था को ही ररव्यू कर लेना चाहती हैं फक क्या हववाह की सारी गरज स्त्री को ही है ? क्यों बगैर रुपए की थैली के वह वर के साथ तराजू पर रखी ही नहीं जा सकती ? फक सफदयों से स्त्री आस ऄपमान को सहती क्यों चली अ रही है ? हसिष पेट भर रोटी खाने के हलए ? लेफकन ईसके हलए क्या वह खुद कमा नहीं

(8)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

सकती? क्या ईसे खुद कमाना नहीं चाहहए ? ऄकेली औरत यफद कमजोर

है और ईसे सदैव एक रक्षक की जरूरत है तो क्यों नहीं दस-पाँच हस्त्रयाँ हमल कर ‘साथ रहतीं’? हववाह संस्था का ईन्मूलन नहीं तो ईसके हवकलपों पर हवचार तो फकया ही जा सकता है न! जाहहर है हनमषला सती होना ऄस्वीकार करती है। वह घूँघट खोल कर वर-पक्ष से नपा-तुला एक ही सवाल करती है फक क्या हववाह स्त्री और पुरुष दोनों ही की पसन्द से होना

चाहहए? यफद हाँ, तो “मुझे आन महाशय से हववाह करना मँजूर नहीं’’ क्योंफक हजस हववाह का अधार रूप है , वह रूप ही

की तरह ऄहस्थर होगा। यह कहानी आसहलए महत्वपूणष है फक ऄपने वि से अगे जाकर हस्थहतयों को नए अलोक में देखने

का अग्रह करती है। एक , ब्याह जैसे मामलों में स्त्री की स्वीकृहत मानी हुइ बात क्यों हो ? दूसरे, पुरुष आस ऄहंकार को

छोड़ दे फक हववाह करके वह कन्या का ईर्द्ार करता है , बहलक ईसे समझना चाहहए फक कन्या हववाह करके पुरुष का

ईर्द्ार करती है। तीसरे , हववाह स्त्री के जीवन का ऄहन्तम सत्य नहीं। अर्थथक स्वावलम्बन के जररए वह बेहतर जीवन जीने का हवकलप ऄपनाने को तैयार बैठी है।

भावना और बौहर्द्कता का सन्तुहलत तालमेल हशवरानी की कहाहनयों में मास ऄपील पैदा करता है। ईनकी ऄपनी

स्वभावगत धीरता, जुझारू वृहि और दृहिगत ईदारता फकसी भी पूवषग्रह या दुराग्रह में कैद न हीं होती वरन् तकष-हवतकष के

जररए हस्थहतयों की पड़ताल करती चलती है। ‘समझौता’ कहानी में वे स्वतन्त्र भारत में स्वराज्य की पररकलपना से गद्गद्

हैं। ईन्हें हवश्वास है फक स्त्री -पुरुष समानता का ईनका स्वप्न ऄन्ततः स्वतन्त्र भारत में पूणष हो जाएगा। सम्पहि , सन्तान, धमष और देह पर स्त्री के ऄहधकार की कामना करती हशवरानी देवी अज के स्त्री -हवमशष की जननी प्रतीत होती हैं , हवशेषकर देह पर स्त्री-ऄहधकार की पैरवी के सन्दभष में। लेफकन हजस प्रकार अज का ‘प्रगहतशील’ पुरुष स्त्री- हवमशष में

देहमुहि के अग्रह को स्त्री -मुहि अन्दोलन के स्खलन और नकारात्मक पाश्चात्य प्रभाव की दुहाइ देकर खाररज करता है , ईसी प्रकार तदयुगीन पुरुष भी पहश्चम की दुहाइ देकर ऄपनी पररणीता/प्रबुर्द् स्त्री का मुँह बन्द कर देना चाहता है – “तुम लोगों पर भी पहच्छम का जादू चल गया और तुम भी हकों के हलए लड़ने पर तैयार हो गईं। स्त्री का महत्त्व और बड़प्पन आसी बात में है फक वह माता है और माता का गुण है त्याग और ईत्सगष। ऄगर स्त्री ईस पद को त्याग कर पुरुषों के बराबर अना चाहती है तो शौक से अवे , लेफकन ईसे बहुत जलद मालूम हो जाएगा फक आन हकों को लेकर ईसने महँगा सौदा

फकया है।’’ (नारी हृदय , पृ0 151) या समानाहधकार के दावे के बरक्स दफ्तर में बराबर का काम करने का भय फदखाना

चाहता है। लेफकन हशवरानी की नाहयका फकसी भी शै से भयभीत होने वाली स्त्री नहीं। मुँहतोड़ जवाब ईसके पास सदा

तैयार है –“हस्त्रयाँ हजतने त्याग से काम कर सकती हैं , पुरुष नहीं कर सकते; लेफकन तब बच्चे अप ही पैदा कीहजएगा और घर के सब काम-काज भी अपको करने पड़ेंगे।’’ (पृ 0 152) यह स्त्री स्वतन्त्र भारत में वेश्यावृहि का ईन्मूलन और बहुहववाह प्रथा को कानूनन हनहषर्द् करवाने के हलए करटबर्द् है। ‘अधी दुहनया’ के हलए ‘अधी जमीन और अधे असमान’

की पैरवी करती यह स्त्री नौकररयों में ‘अधी जगहें’ लेकर अर्थथक स्वाधीनता ऄर्थजत करना चाहती है – “नौकरी करना

असान है या मुहश्कल, आसके बारे में हस्त्रयाँ अप लोगों की राय नहीं पूछने जातीं। वे यह जानती हैं फक हबना मुहश्कल काम फकए ईनका यथाथष अदर नहीं हो सकता। आसीहलए ऄब वह असान काम छोड़ कर मुहश्कल काम करेंगी। जब पुरुषों को

घर के असान काम करने का तजरबा हो जाएगा , तब ईन्हें हस्त्रयों की कदर मालूम होगी। ऄगर पुरुष मुहश्कल काम कर सकता है तो स्त्री भी कर सकती है।’’ (पृ 0 158) व्यंग्य नहीं, ईलाहना नहीं, सहयोग की कातर पुकार नहीं , चुनौती के

(9)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

जवाब में चुनौती को स्वीकारने का हौसला , अत्महवश्वास और दृढ़ संकलप! सपनों को साकार करने के हलए आसके ऄहतररि और चाहहए भी क्या?

4.5. सुभद्राकुमारी चौहान

लेखन-शैली एवं तेवर में सुभद्राकुमारी चैहान हशवरानी देवी का हवलोम हैं , स्त्री-मानस के गोपन रहस्यों को पढ़ने और ईकेरने में नहीं। ईनका लेखन ऄपनी मूल स्थापनाओं में अज के स्त्री लेखन के ऄहधक हनकट है। वे सामाहजक समस्याओं पर बात करने की बजाय हपतृसिात्मक व्यवस्था के स्वरूप की जाँच कर लेना चाहती हैं , जो हशशु को मनुष्य नहीं , सलग –

‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ - बना कर संस्काररत करने की पाठशाला है। आसहलए ईनकी कहाहनयों में सपाटबयानी या बड़बोलापन नहीं, सांकेहतकता है; अवेश नहीं, संयम है। स्त्री-पुरुष दोनों की रूढ़ छहवयाँ ईनके हनकट बेमानी हैं और ईन छहवयों को

बनाने वाले सांस्कृहतक-मनोवैज्ञाहनक दबाव भी। स्त्री-संवेदना से अन्दोहलत ईनकी कहाहनयाँ सवाल ईठाती हैं फक प्रेम और हमत्रता पुरुषों की हवरासत क्यों ? स्त्री मनुष्य है तो क्या संवाद और कोमल भावनाओं के अदान-प्रदान की

अवश्यकता ईसे नहीं? घर-अँगन ही ईसकी जरूरतों की जमीन और सपनों का असमान क्यों हो ? सुभद्राकुमारी चौहान एक नहीं, चार महत्वपूणष कहाहनयों – ‘मँझली दीदी’, ‘थाती’, ‘ईन्माफदनी’, ‘ऄनुरोध’ - में स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम और मैत्री

की भावनात्मक एवं मानवीय ऄहनवायषता की पैरवी करती हैं। जब सब कुछ ऄ-गोपन हो - सम्बन्ध से लेकर संवाद तक , अकांक्षाओं से लेकर व्यवहार तक , तब व्यहभचार एवं ऄश्लीलता का प्रवेश होगा भी तो कहाँ से ? लेफकन क्या पारदशी

सम्बन्धों के स्वस्थ स्वरूप को जानते हुए भी हपतृसिात्मक वचषस्व से अक्रान्त समाज स्त्री को प्रेम और हमत्रता की ऄनुमहत देने को तैयार है? ‘मँझली दीदी’ कहानी में सुभद्राकुमारी चैहान स्त्री-पक्ष की ओर से ईठाए गए आन सवालों को समाज के

सामने रखती हैं - दृढ़ और ठोस समथषन के साथ। आस प्रस्तुहत में नैहतकता के दावेदारों पर व्यंग्य है – “हमत्र, भला फकसी

स्त्री का कोइ पुरुष भी हमत्र हो सकता है ? और यफद हो भी ... तो वह स्त्री भ्रिा है , चररत्रहीन है। नहीं तो पर-पुरुष से

हमलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है।’’ (सुभद्रा समग्र , पृ0 20) बेहद मुँहजोरी के साथ नैहतकतावाफदयों को

अइना फदखाने की फदलेरी है – “शराब पीकर रहण्डयों की बाँह में बाँह डाल कर टहलने में नाक नहीं कटती। गरीबों पर मनमाने जुलम करने पर नाक नहीं कटती। नाक कटती है मेरे गाने से।’’ (पृ 0 25) ; धमष, संस्कृहत और अदशष की दुहाइ देकर ऄपनी ही बेरटयों की कब्र खोदते ‘हपताओं’ के पुरुष-चररत्र पर थू-थू है – “जब यह (पुत्री) भ्रि हो चुकी है तो आसे यहाँ

क्यों लाए? रास्ते में कोइ खाइ-ख न्दक न हमला जहाँ ढकेल देते ? आसे मैं ऄपने घर रखूँगा ? जाय, कहीं भी मरे।’’ आस गवोंहि में स्त्री से हतल भर जगह और साँस छीन लेने की सांस्कृहतक श्रेिता भी हनबर्द् है जो मूलतः क्रूरता को मखमली

जामा पहना कर भ्राहन्तयों को सत्य बनाने की सनक का नमूना है। सुभद्राकुमारी चैहान सवाल ईठाती हैं फक सुपररभाहषत पाररवाररक-सामाहजक सम्बन्धों की हदबन्दी के बाहर हवकहसत स्त्री -पुरुष सम्बन्ध को फकस अधार पर खाररज फकया

जाए? खासतौर पर तब जब मनुष्यता और औदायष का सौन्दयष पूरे वैभव के साथ ऐसे सम्बन्ध में मौजूद हो ? मास्टर बाबू

के साथ ‘बात’ कर लेने के ऄपराध में ससुराल और मायके से दुरदुराइ ऄहशहक्षता मँझली रानी पूरे एक वषष तक हभखाररन बन कर रही है। ईसकी दशा देख-सुन कर पररजन क्षुब्ध नहीं। क्षुब्ध हैं वही मास्टर बाबू जो ईसे ऄपने घर हलवा कर अश्रय भी देते हैं और सम्मान भी। लोकापवाद का भय क्रांहतकाररयों को नहीं होता , लेफकन मँझली रानी प्रश्नाकुलता और भावहवह्वलता के बीच हवमूढ़ सी है फक “मैं ऄभी तक नहीं जान सकी फक वे मेरे कौन हैं? वे मुझ पर माता की तरह ममता

(10)

HND : हहन्दी P 11 :स्त्री लेखन

M8 :नवजागरण अन्दोलन और स्त्री लेखन

और हपता की तरह प्यार करते हैं , भाइ की तरह सहायता और हमत्र की

तरह नेक सलाह देते हैं , पहत की तरह रक्षा और पुत्र की तरह अदर करते हैं। कुछ न होते हुए भी वे मेरे सब कुछ हैं और सब कुछ होते हुए भी वे मेरे कुछ नहीं हैं।’’ (पृ0 30)

4.6. ईषादेवी हमत्रा

हशवरानी देवी और सुभद्राकुमारी चैहान में ईपहस्थत दृहिगत ईदारता और वैचाररक स्पिता के साथ हनभीकता और दृढ़ता की हवशेषता ईनके लेखकीय व्यहित्व में जुझारू योर्द्ा का ऄहतररि अयाम ही नहीं जोड़ती , बहलक ईन्हें

समकालीन रचनाकारों से हवहशि भी बनाती है। ईषादेवी हमत्रा में टुकड़ा-टुकड़ा ये चारों हवशेषताएँ मौजूद हैं , लेफकन एकाहन्वहत न होने के कारण स्त्री मुद्दों पर खहण्डत प्रहतफक्रयाएँ व्यि करने के ऄहतररि वे ईसे कोइ ठोस वैचाररकी नहीं दे

पातीं। ईषादेवी हमत्रा ऄपने लेखन में अद्यन्त हद्वधाग्रस्त हैं। गाँधीवादी हवचारधारा को व्यावहाररक रूप देने की बाध्यता

में स्त्रीत्व की रूढ़ छहव की प्रहतिा या स्त्री के साथ होने वाले हच रन्तन ऄन्याय को ईद्घारटत करने की लेखकीय किषव्यशीलता - वे दोनों ध्रुवों को साथ-साथ लेकर चलना चाहती हैं। कहीं-कहीं बेहद प्रखरता एवं दृढ़ता के साथ परम्परा

का हवरोध करते हुए स्त्री को नए अलोक में देखने का अग्रह भी करती हैं और आस प्रफक्रया में सफदयों से चली अ रही

तमाम व्यवस्थाओं/सूहियों को ईलटा भी देती हैं , लेफकन ऄन्त तक वे ऄपनी हवद्रोही मुद्रा की पैनी धार बनाए नहीं रख पातीं; बीच राह में भरभरा कर समपषण की मुद्रा में सती की प्रहतिा करते हुए ऄपनी ही वैचाररकता का हवलोम रचने

लगती हैं। ईषादेवी हमत्रा भावना की तरलता और बौहर्द्कता की तीक्ष्णता को सान कर ऄन्त दृषहि हवक हसत नहीं करतीं, बहलक तेल और पानी की तरह दोनों का ऄलग-ऄलग स्वतन्त्र वजूद बनाए रखती हैं। आसहलए ईनकी समूची रचनात्मकता

या तो हडबेट का बौहर्द्क कररश्मा बन कर रह जाती है या भावुकता का सैलाब। स्त्रीहवषयक मुद्दों को लेकर वे स्वयं कहाँ

खड़ी हैं, ऄन्त तक पता नहीं चलता।

5. हनष्कषष

आन प्रमुख रचनाकारों के ऄहतररि नवजारणकालीन (स्वतन्त्रतापूवष) ऄन्य लेहखकाओं में यशोदादेवी , हप्रयंवदादेवी, शारदाकुमारी, होमवती देवी, चन्द्रफकरण सौनरेक्सा का योगदान भी हवशेष ईललेखनीय है हजन्होंने ऄपने-ऄपने ढँग से

स्त्री-प्रश्नों पर हवचार कर स्त्री के प्रहत समाज के रवैये और संवेदनशीलता का पररचय फदया। नवजागरण कालीन हद्वधाग्रस्तता के कारण हालाँफक फकसी-फकसी लेहखका में परम्परा का पोषण भी फदखलाइ पड़ता है। ईदाहरणस्वरूप बंगमहहला का लेखन हमारे सामने है। परन्तु, ऄज्ञात हहन्दू महहला,दुहखनी बाला,पं. रमाबाइ, हशवरानी देवी,

सुभद्राकुमारी चौहान स्त्री प्रश्नों पर बेबाकी से हवचार करती हैं। समाज द्वारा हस्त्रयों के हलए ऄपनाया गया दोयम दजे का

व्यवहार ईन्हें बहुत क्षुब्ध करता है। अदशष पत्नी और पुत्री के पीछे छुपे हुए यथाथष को स्त्री संवेदनशीलता के साथ ये ऄपनी

रचनाओं में ईजागर करती हैं। नवजागरण काल हस्त्रयों के हलए एक नए युग का संदेश लेकर अया था। पुरूष लेखक जहाँ

कुछ छूट देकर परम्परानुसार ही स्त्री हशक्षा पर ऄपने हवचार रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ़ ये लेहखकाएँ, हस्त्रयों के जीवन के

जीवन में अमूल-चूल बदलाव के स्वप्न देख रहीं थीं। स्त्री- पुरूष सम्बन्ध,स्त्री हशक्षा,स्त्रीऄहधकार एवं रूफढ़मुि समाज पर आनका दृहिकोण पुरूष लेखकों की ऄपेक्षा ऄहधक सन्तुहलत एवं मानवीयता पर अधाररत हैं। हनस्सन्देह,

नवजागरणकालीन स्त्री लेहखकाएँ अधुहनक स्त्री- हवमशष की मजबूत पृिभूहम का हनमाषण करती हैं।

References