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(1)HND : हिन्दी P 15 : साहित्य का इहििास दर्शन M 24 : हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन का इहििास हिषय हिन्दी प्रश्नपत्र सं

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Academic year: 2023

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HND :

हिन्दी

P 15 : साहित्य का इहििास दर्शन

M 24 : हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन का इहििास

हिषय हिन्दी

प्रश्नपत्र सं. एिं र्ीषशक P15 : साहित्य का इहििास दर्शन

इकाई सं. एिं र्ीषशक M 24: हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन

इकाई टैग HND_P15_M24

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश्नपत्र-संयोजक प्रो. मैनेजर पाण्डेय इकाई-लेखक डॉ. प्रेमर्ंकर प्रश्नपत्र समीक्षक प्रो. गोपेश्वर ससि

भाषा सम्पादक प्रो. देिर्ंकर निीन पाठ का प्रारूप

1. पाठ का उद्देश्य 2. प्रस्िािना

3. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन और इहििास हिन्िन 3.1. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन

3.2. हिन्दी साहित्य में हिहिध प्रकार के इहििास लेखन 3.3. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन

3.3.1. साहित्य का इहििास दर्शन और नहलन हिलोिन र्माश 3.3.2. जािीय साहित्य की समस्याएँ और इहििास लेखन 3.3.3. साहित्य के इहििास की मार्कसशिादी दृहि

3.3.4. साहित्येहििास हिरोधी दृहिकोण की पििान 3.3.5. साहित्य इहििास की स्त्री दृहि

4. हनष्कषश

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P 15 : साहित्य का इहििास दर्शन

M 24 : हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन का इहििास 1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ का अध्ययन करने के उपरान्ि आप–

 साहित्य के अनुर्ीलन में साहित्य के इहििास का उपयोग समझ सकेंगे।

 हिन्दी साहित्य के इहििास लेखन की जानकारी िाहसल कर सकेंगे।

 हिन्दी में हुए साहित्येहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन के सन्दभश को जान सकेंगे।

 इहििास-लेखन से साहित्य के इहििास लेखन की हभन्निा एिं समानिा को समझ सकेंगे।

2. प्रस्िािना

साहित्य के ऐहििाहसक स्िरूप को समझने के हलए साहित्य के इहििास की आिश्यकिा पड़िी िै। हिन्दी में

साहित्येहििास लेखन की र्ुरुआि उन्नीसिीं सदी में हुई। फ्रेंि हिद्वान गासाश द िासी ने हिन्दी साहित्य के इहििास लेखन की र्ुरुआि की। प्रत्येक इहििासकार अपने पररिेर् और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर िी इहििास लेखन करिा िै।

उसका दृहिकोण भी इहििास लेखन को प्रभाहिि करिा िै। समय के साथ अिीि के सन्दभश में नई जानकाररयाँ प्राप्त िोिी

िैं। पररणामिः स्थाहपि मान्यिाओं के मूलयांकन की आिश्यकिा सदैि बनी रििी िै। इहििास से जुड़े इन सिालों पर हििार साहित्य-इहििास हिन्िन के अन्िगशि ककया जािा िै। हिन्दी में इस हिषय पर ििाश की बहुि गिरी परम्परा निीं

कदखलाई देिी िै।

3. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन और इहििास हिन्िन 3.1. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन

आधुहनक ढंग से इहििास लेखन की र्ुरूआि भारि में हिरटर्काल में हुई। इसी के साथ भारिीय साहित्य, दर्शन, संगीि

आकद कलाओं का भी नए िरीके से इहििास हलखा जाने लगा। हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन औपहनिेहर्क र्ासन और उससे मुहि के संघषों के बीि र्ुरु हुआ था। पररणामिः प्रारहम्भक काल में साहित्येहििास लेखन पर जिाँ एक ओर औपहनिेहर्क दृहिकोण का प्रभाि कदखा, ििीं दूसरी िरफ औपहनिेहर्क मानहसकिा हिरोधी और राष्ट्रीय निजागरण के

पररप्रेक्ष्य में हिकहसि िोिी इहििास दृहि कदखी। गासाश द िासी ने‘इस्त्िार द ला हलिरेत्यूर एन्दुई एन्दुस्िानी’ नाम से

पिला इहििास हलखा, हजसका पिला खण्ड सन् 1839 में और दूसरा खण्ड सन् 1847 में प्रकाहर्ि हुआ। इसके पश्चाि्

हर्िससि सेंगर का ‘हर्िससि सरोज’ (सन् 1883) प्रकाहर्ि हुआ। इसमें लगभग एक िजार रिनाकारों का जीिन िररि

उनकी रिनाओं सहिि िर्णणि िै। आगे िलकर सन् 1888 में एहर्यारटक सोसायटी ऑफ बंगाल की पहत्रका के हिर्ेषांक के रूप में जाजश हियसशन का‘द माडशन िनेर्कयुलर हलटरेिरऑफ हिन्दुस्िान’ का प्रकार्न हुआ। इसे िी िास्िहिक अथश में

हिन्दी का पिला इहििास माना जािा िै। हियसशन के बाद हमश्र-बन्धुओं ने िार खण्डों में 'हमश्रबन्धु-हिनोद’ हलखा, हजसके

िीन खण्ड सन् 1913 में और अंहिम खण्ड सन् 1919 में प्रकाहर्ि हुआ। इस िन्थ में लगभग पाँि िजार रिनाकारों का

िणशन िै। इसमें िर्णणि सामिी का बाद के अनेक इहििासकारों ने उपयोग ककया, हजनमें आिायश रामिन्र र्ुर्कल का नाम भी र्ाहमल िै। हमश्र-बन्धुओं के बाद आिायश रामिन्र र्ुर्कल ने ‘हिन्दी साहित्य का इहििास’ (सन् 1929) हलखकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया, जो नागरी प्रिाररणी सभा द्वारा प्रकाहर्ि ‘हिन्दी र्ब्द-सागर’ की भूहमका के रूप में हलखा

गया। इस िन्थ को हिन्दी साहित्येहििास-लेखन परम्परा सिोच्च स्थान प्राप्त िै। आगे िलकर इस परम्परा को आिायश

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P 15 : साहित्य का इहििास दर्शन

M 24 : हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन का इहििास

िजारीप्रसाद हद्विेदी, हर्िदान ससि िौिान, नगेन्र, रामखेलािन

पाण्डेय, रमार्ंकर र्ुर्कल, रामस्िरूप ििुिेदी, हिश्वनाथ हत्रपाठी, िन्रगुप्त िेदालंकार, और सुमन राजे ने समृद्ध ककया।

3.2. हिन्दी साहित्य में हिहिध प्रकार के इहििास लेखन

हिन्दी साहित्य के इहििास प्रायः एक िी हजलद में हलखे गए िैं, ककन्िु हिन्दी साहित्य का हिस्िार इिना अहधक िै कक उसे

एक या दो हजलदों में समेट पाना सम्भि निीं िै। हिन्दी साहित्य के हिस्िार को हिन्दी साहित्य के घेरे में समेटने का प्रयास 'हिन्दी साहित्य का िृिि् इहििास' में ककया गया िै। हिन्दी साहित्य का िृिि् इहििास की योजना 'नागरी प्रिारणी सभा, कार्ी' ने संिि् 2010 में की। इस योजना के अन्िगशि हिन्दी साहित्य के इहििास को सिरि खण्डों में प्रकाहर्ि करना था।

इसकी योजना 'कैहम्िज हिस्री ऑफ़ हलटरेिर' के ढंग पर बनाई गई। िालाँकक इस इहििास का हनमाशण परम्परागि

इहििास हिन्िन पर िी आधाररि िै, कफर भी सामिी की दृहि से यि बहुि उपयोगी िै।

हिन्दी साहित्य के सम्पूणश इहििास लेखन के अहिररि अन्य पद्धहियों में भी इहििास लेखन ककया गया : जैसेᅳ हिन्दी

साहित्य के हिहभन्न कालों का इहििास, साहित्य के हिहभन्न सम्प्रदायों का इहििास, हिधाओं का इहििास और क्षेत्र हिर्ेष के साहित्य का इहििास आकद।

3.3. हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन

हिन्दी साहित्य के इहििास-लेखन का प्रयत्न भले िी उन्नीसिीं र्िी के उत्तराद्धश में र्ुरु िो िुका था, ककन्िु साहित्येहििास सम्बन्धी हिन्िन की परम्परा का हिकास स्िाधीनिा प्राहप्त से पूिश निीं िो सका। साहित्य के इहििास को लेकर र्कया

दृहिकोण िो, पूिशििी इहििासों की प्रासंहगकिा और सीमा पर हििार करिे हुए नए साहिहत्यक इहििास की र्कया

रूपरेखा बने, हिन्दी साहित्य के इहििास का भारिीय साहित्य के इहििास के साथ र्कया सम्बन्ध िो, साहित्य के इहििास के हलए र्कया हिश्वदृहि अपनाई जाए... आकद प्रश्नों पर हिस्िार से हििार हिमर्श बहुि बाद में सम्भि िो पाया। आज भी

इस हिषय पर पयाशप्त हििार निीं हुआ िै, हजसका अन्दाजा इसी बाि से लगाया जा सकिा िै कक कफलिाल इस हिषय पर हिन्दी में हसफश दो पुस्िकें िी उपलब्ध िैं। इस कदर्ा में सबसे पिले साहित्य हिन्िक नहलन हिलोिन र्माश ने ‘साहित्य का

इहििास दर्शन’ (सन् 1960) नामक पुस्िक हलखकर पिल की। कफर सन् 1981 में मैनेजर पाण्डेय की प्रकाहर्ि पुस्िक

‘साहित्य और इहििास दृहि’ का प्रकार्न हुआ। इनके अहिररि नामिर ससि की ‘इहििास और आलोिना’ रामहिलास र्माश की ‘भारिीय साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ’, ‘हिन्दी जाहि का साहित्य’ (सन् 1986) हनत्यानन्द हििारी की

पुस्िक ‘आधुहनक साहित्य और इहििास बोध’ (सन् 1994) और सुमन राजे का 'हिन्दी का आधा इहििास' (सन् 2003) एिं उनकी अन्य रिनाओं के कई हनबन्धों में भी साहित्य के इहििास दर्शन की समस्या पर हििार ककया गया िै। आगे िम इन हिद्वानों की मान्यिाओं को समझने का प्रयास करेंगे।

3.3.1. साहित्य का इहििास दर्शन और नहलन हिलोिन र्माश

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नहलन हिलोिन र्माश ने सन् 1960 में हबिार राष्ट्रभाषा पररषद् से

प्रकाहर्ि अपनी पुस्िक ‘साहित्य का इहििास दर्शन’ के माध्यम से हिन्दी में पिली बार इहििास दर्शन पर व्यिहस्थि

िरीके से हििार करने की परम्परा र्ुरु की। सोलि अध्यायों में हिभाहजि इस पुस्िक के माध्यम से उन्िोंने प्राच्यहिदों

द्वारा इहििास और साहित्येहििास लेखन के क्षेत्र में फैलाई गई भ्रान्ि धारणाओं का िकशपूिशक खण्डन करिे हुए भारिीय इहििास हिन्िन पद्धहि का हनरूपण ककया। पुस्िक के पिले अध्याय ‘इहििास दर्शन : भारिीय दृहिकोण’ में नहलन जी ने

मैकडानेल, पार्णजटर आकद पहश्चमी इहििासकारों को उद्धृि करिे हुए बिाया िै कक ‘प्राच्यहिद्याके हिद्वानों के अनुसार प्रािीनभारिीयोंनेअपनेअिीिकाइहििासप्रस्िुिनिींककया िै। कारण उनमेंऐहििाहसक हििेकथािीनिीं।' नहलन जी को यि धारणा आश्चयशजनक लगिी िै कक ‘भारिीय इहििास के पाश्चात्य इहििासकारों ने, पुराणों को अहिश्वास्य घोहषिकरिेहुएभी, इन्िींकेआधारपर राजाओंकेनामऔरउनकाराजत्िकालहनधाशररिककयािै।पार्णजटरकेद्वारा

पुराणों से संकहलिऐसी सामिीका मित्त्ि हनर्णििादिै, यद्यहपइसहिद्वान्ने भीसामान्य रूप सेयि कि डालािै कक प्रािीन भारि ने िमें इहििासिन्थ निीं कदए िैं।'इसी प्रकार ‘मैकडानेल और पार्णजटर’ आकद प्राच्यहिदों ने कलिण की

‘राजिरंहगणी’ को नजर अंदाज कर कदया। िस्िुिः भारिीयों का इहििास सम्बन्धी दृहिकोण न समझ पाने और प्रिहलि

पहश्चमी दृहि से भारिीय इहििास लेखन की परम्परा को देखने के कारण िी पाश्चात्य हिद्वान भारिीय साहित्य, कला और इहििास के प्रहि एक दुभाशिना के हर्कार िो गए। उन्नीसिीं सदी में इहििास लेखन की जो प्रणाली पहश्चम में प्रिहलि थी, उससे भारिीय प्रणाली सिशथा हभन्न थी। अपनी बाि के प्रमाण स्िरूप नहलन जी ने मिाभारि का एक श्लोक भी उद्धृि

ककया िै और बिाया िै कक ‘करठनाई, सि बाियि िै कक इहििास सम्बन्धी इसी हिलक्षणदृहिकोण के कारणरिी िै।

धमश, अथश, काम, मोक्षइसपुरुषाथश-ििुियमेंमानिसभ्यिाकाप्रत्येकक्षेत्रअन्िभुशििोजािािै।'

नहलन जी ने पुस्िक के िीसरे हनबन्ध ‘साहिहत्यक इहििास की प्रािीन भारिीय परम्परा संस्कृि में’ के द्वारा यि भी

बिलाया कक प्राच्यहिदों ने साहिहत्यक परम्परा और ककिदंहियों की उपेक्षा करके साहित्येहििास हिन्िन को हिकृहिपूणश बना कदया। कहियों और रिनाओं के काल-हनधाशरण की समस्या का जन्म इसी कारण हुआ। काहलदास के सन्दभश में िे कििे

िैं कक "आजिककाहलदास कासमयहनहश्चिनिींकरपाएिैंिोइसकाकारणयिीिैकक िेउन्िेंई.पू. 57के हिक्रमका

समकालीनमाननेसेइनकारकरिेरिेिैं, यद्यहपहनहश्चि परम्परायिीिै।भाषाऔरर्ैलीजैसेिथाकहथिअन्िःसाक्ष्यों

औरअनेकबहि–साक्ष्यों केिक्करमेंपड़करकाहलदासकासमयसदाकेहलएअसमाधेयिो गयािै।"उनका मानना िै कक इस समस्या को ककिदहन्ियों, संस्कृि सुभाहषिों का संििण और हिश्लेषण करके सुलझाया जा सकिा िै। संस्कृि साहित्य में

सुभाहषिों की समृद्ध परम्परा थी। नहलन जी ने इस पुस्िक में 482 सुभाहषि संििों की िाहलका भी प्रस्िुि की िै और बिलाया िै कक इन संििों में र्ाहमल ककसी भी कहि का साहित्येहििास में उललेख निीं हमलिा, हजससे ज्ञाि िोिा िै कक ककिनी हिपुल साहित्य राहर् साहित्येहििास लेखन से बािर िै। जबकक सुभाहषि लेखन की परम्परा प्राकृि िक हनबाशध रूप से िली आई िै।

नहलन जी ने जिाँ एक ओर पाश्चात्य प्रहिहध पर प्रािीन भारिीय साहित्य के अनुर्ीलन को अनुहिि बिलाया, ििाँ दूसरी

ओर आधुहनक साहित्येहििास हिन्िन के हिकास में पाश्चात्य हिद्वानों की भूहमका को भी स्िीकार ककया िै। नहलन जी ने

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M 24 : हिन्दी साहित्य का इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन और लेखन का इहििास

जमशन, फ्रेंि, अंगरेजी, रूसी, पोहलर् और िेक जैसे देर्ों के साहिहत्यक

इहििास सम्बन्धी धारणाओं का हिस्िार से पररिय इस पुस्िक में कदया िै। िदुपरान्ि हिन्दी साहित्य के इहििास सम्बन्धी

दृहिकोण पर अपना मि अहभव्यि ककया िै। हजसके अन्िगशि उन्िोंने गासाश द िासी, हर्िससि सेंगर, जाजश हियसशन, हमश्र बन्धुिों, आिायश रामिन्र र्ुर्कल, रामर्ंकर र्ुर्कल और आिायश िजारीप्रसाद हद्विेदी की इहििास दृहि से हििार ककया िै।

नहलन जी साहित्येहििास लेखन की परम्परा की ििाश करिे हुए 'गासाश द िासी' के मित्त्ि का उललेख करने के बािजूद साहित्येहििास के क्षेत्र में हिन्दी का पिला प्रयास हर्िससि कृि, ‘हर्िससि सरोज’ नामक िृत्त संिि को मानिे िैं और युग हिभाजन, पृष्ठभूहम-हनदेर्, सामान्य प्रिृहत्त हनरूपण, िुलनात्मक आलोिना, रिना के मूलयांकन सम्बन्धी प्रयास िथा

हििेिन की साहिहत्यकिा के दृहिकोण के आधार पर हिन्दी का पिला इहििास हियसशन की पुस्िक ‘द माडनश िनाशर्कयुलर हलटरेिर ऑफ़ हिन्दुस्िान’ को मानिे िैं।

नहलन जी हिन्दी साहित्येहििास लेखन में हिधेयिादी प्रणाली के सूत्रपाि का श्रेय हियसशन को देिे िैं। इस सन्दभश में

उन्िोंने हलखा िै कक 'हिन्दीसाहित्यकेइहििासलेखनकेहलएहिधेयिादीप्रणालीकेहिहनयोगकेप्रििशन केहजसश्रेयका

अहधकारी पं. रामिन्र र्ुर्कल अपने को मानिे िैं, िि िस्िुिः हियसशन को प्राप्य िै।' आिायश र्ुर्कल ने पहश्चमी इहििास लेखन में प्रिहलि हिधेयिाद को थोड़े नएपन के साथ अपनाया था। पररणामिः उन्िें मार्कसशिादी प्रगहििाकदयों से

अभूिपूिश मान्यिा हमली। उनकी दृहि में इहििास लेखन की परम्परा को आिायश र्ुर्कल के बाद नई राि िजारीप्रसाद हद्विेदी ने प्रदान की। उन्िोंने हिधेयिादी प्रणाली को छोड़कर ‘साहित्य की हिहभन्न प्रिृहत्तयों और उसके मूल और

िास्िहिक स्िरूप का स्पि पररिय देना िी अपना लक्ष्य घोहषि ककया। इस प्रकार हद्विेदी जी हिन्दी में पिली बार, कदाहिि समस्ि भारिीय भाषाओं में सबसे पिले आिायश र्ुर्कल के द्वारा प्रिर्णिि, हिधेयिादी साहित्येहििास से हभन्न, साहिहत्यक साहित्येहििास हलखने के अहधकारी हसद्ध िोिे िैं।

नहलन जी ने इहििास, र्ोध और आलोिना को एक दूसरे में अन्िभुशि कर कदए जाने की प्रिृहत्त का भी हिरोध ककया िै।

उनका स्पि मानना िै कक ‘इहििास सम्पूणश हिस्िार का सिेक्षण, अनुर्ीलन और मूलयांकन िै; र्ोध हिस्िार के खण्ड-खण्ड का उद्घाटन और हिश्लेषण करिा िै; और आलोिना पथ हिह्नों पर प्रकार् केहन्रि करिी िै। िीनों एक दूसरे के हलए आिश्यक और पूरक िोिे हुए भी स्ििन्त्र मित्त्ि के अहधकारी िैं।’ हिस्िार को साहिहत्यक इहििास की भी कसौटी मानिे

हुए नहलन जी इस हनष्कषश पर पहुँििे िैं कक ‘साहिहत्यक इहििास का हिषय भी यकद हिस्िार िै, िो मिान लेखकों से

अहधक मित्त्ि उन गौणों (Minors) का िै, हजनसे हिस्िार हनर्णमि हुआ िै। हिन्दी साहित्य के इहििासों में इन मिान गौणों की उपेक्षा हुई िै और इसका कारण यि िै कक र्ोध ने अपने िास्िहिक कत्तशव्य का पालन निीं ककया िै।’ संस्कृि के

िजारा साहित्य का मित्त्ि िे इसी कारण मानिे िैं कक इससे िि साहित्य सुरहक्षि िो सका जो पुस्िकाकार प्रकाहर्ि िोने

से िंहिि रि गया। नहलन जी ने ‘हिन्दी साहित्य की मिान परम्पराएँ’ ‘साहिहत्यक इहििास के र्ेष पक्ष’ जैसे हनबन्धों में

इहििास और परम्परा के सम्बन्ध, साहिहत्यक इहििास और जनरुहि, प्रािीन काव्यों की प्रामाहणकिा, लोकिािाश का

साहित्येहििास लेखन में मित्त्ि आकद हिषयों पर भी हििार ककया िै।

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3.3.2. जािीय साहित्य की समस्याएँ और इहििास लेखन

रामहिलास र्माश हिन्दी उन प्रमुख आलोिकों में र्ाहमल िैं हजन्िोंने भाषा, साहित्य और उनसे जुड़े पक्षों पर मार्कसशिादी

ढंग से हििार ककया िै। सन् 1984 में प्रकाहर्ि 'हिन्दी जाहि का साहित्य’ िथा ‘भारिीय साहित्य के इहििास की

समस्याएँ’ पुस्िकों से उनके साहित्येहििास सम्बन्धी मान्यिाओं का पिा िलिा िै। इन पुस्िकों के अलािा अनेक हनबन्धों

में भी उन्िोंने इस पक्ष पर हििार ककया िै। इसके साथ िी उन्िोंने दर्शन के इहििास पर ‘इहििास दर्शन’ नाम से एक पुस्िक हलखी िै। उन्िोंने जाहि के सिाल के सन्दभश में िी साहित्य से सम्बद्ध प्रश्नों पर हििार ककया िै। रामहिलास र्माश ने

जाहि का सम्बन्ध भाषा से जोड़ा िै। उनके अनुसार ककसी भी भाषा साहित्येहििास लेखन के हलए दो बुहनयादी र्िों को

पूरा करना जरूरी िै। पिली, दूसरी भाषाओं के साहिहत्यक हिकास और उनके अन्िसशम्बन्धों का ज्ञान। भले िी िे भाषा को

जाहि का आधार बिािे िैं, ककन्िु िे इसे ककसी दूसरी जाहि से पृथक निीं मानिे िैं। उनका मानना था कक भारि में

बहुजािीय राष्ट्रीयिा का हिकास मानि समाज के हलए हिहर्ि उपलहब्ध िै। अिः साहित्य के इहििास के हलए भाषाओं के

आधार पर बनी जािीयिाओं के आपसी सम्बन्ध की पििान अत्यन्ि जरूरी िै। इहििासकार िािे मार्कसशिादी िो अथिा

गैर मार्कसशिादी यकद िि भारिीय साहित्य का इहििास हलखिा िै िो उसे हिहभन्न भाषाओं के साहित्य के आपसी सम्बन्धों

पर ध्यान देना िोगा; और यकद उसे ककसी एक भाषा का साहित्य हलखना िो िो भी अन्य भाषाओं के साहित्य में स्थाहपि

सम्बन्धों पर ध्यान देना िोगा। िास्िहिकिा यि िै कक भारि की ककसी भी भाषा के साहित्य का इहििास सिी ढंग से

अहखल भारिीय पररप्रेक्ष्य में िी हलखा जा सकिा िै। रामहिलास र्माश ने साहित्येहििास लेखन के हलए हजस दूसरी

धारणा की आिश्यकिा बिलाई, िि िै उस जाहि और भाषा के हिकास के सम्बन्ध का ज्ञान। जैसे, हिन्दी भाषा का

हिकास हिन्दी जाहि के साथ हुआ। अिः हिन्दी साहित्य का इहििास, हिन्दी जाहि के इहििास से हनरपेक्ष निीं िो सकिा

िै। ये इहििास सम्बन्धी ििी धारणाएँ िैं जो रामहिलास र्माश को आधुहनक साहित्य में मित्त्िपूणश बनािी िै।

3.3.3.

साहित्य के इहििास की मार्कसशिादी दृहि

मार्कसशिादी आलोिक नामिर ससि ने हिन्दी आलोिना में उस समय िस्िक्षेप ककया जब स्िाधीनिा प्राहप्त के पश्चाि

साहित्य और आलोिना में कलािादी प्रभाि उभरने लगे थे, ककन्िु प्रगहििादी आलोिना याहन्त्रकिा का हर्कार िोकर न

िो नई रिनार्ीलिा के साथ न्याय कर पा रिी थी और न िी कलािाद के िरफ से उठाए जा रिे सिालों का िैिाररक जिाब दे पाने में सक्षम िो पा रिी थी। ऐसी हस्थहि में नामिर ससि ने कलािाद के साथ इस िैिाररक संघषश को आगे

बढ़ाने की ऐहििाहसक हजम्मेदारी का हनिशिन ककया और ‘ऐहििाहसक भौहिकिाद’ को ‘आधुहनक इहििास हर्लपी

र्हियों’ के अस्त्र के रूप में व्याख्याहयि ककया। उनकी पुस्िक ‘इहििास और आलोिना’ (सन् 1957) में छपे लेख ‘इहििास में लोक-साहित्य’, ‘इहििास का नया दृहिकोण’, ‘हिन्दी साहित्य के इहििास पर पुनर्णििार’, ‘इहििास और आलोिना’

आकद इस बाि के प्रमाण के िौर पर याद ककए जा सकिे िैं।

नामिर ससि का मानना िै कक इहििास का पिली बार व्यापक स्िर पर प्रयोग स्ििन्त्रिा संिाम में हुआ। िस्िुिः हिरटर्

काल में ‘हिदेहर्यों के हिरुद्ध अपने को श्रेष्ठ साहबि करने की आकांक्षा हुई। ििशमान िो उनका दास था, इसहलए अिीि का

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सिारा हलया गया।’ लेककन इस प्रकक्रया में इहििास िथ्य संििण,

सूिनाओं और काव्य उदािरणों का भी पयाशय बनिा िला गया। जबकक आिश्यकिा साहित्य के इहििास को सामहजक- राजनीहिक पररहस्थहियों के बीि से उभरिे जीिन्ि कायशकलाप के रूप में देखने और व्याख्याहयि करने की थी।

नामिर ससि यि स्िीकार करिे िैं कक आिायश र्ुर्कल ने हिन्दी-साहित्येहििास लेखन की बेजान परम्परा को सजीि बना

कदया। उन्िोंने भले िी 'हमश्रबन्धु हिनोद' की सिायिा ली, ‘लेककन उनका मन िथ्यों की छानबीन की ओर उिना रमा

निीं।उनकीरसदृहि िथाहििेिनर्ील प्रहिभाकहियों केमूलयांकनमें अहधक खुली।कहियोंके जीिनिृत्त, िन्थसूिी

आकद से आगे बढ़कर उन्िोंने कहियों के साहिहत्यक सामथ्यश का उद्घाटन ककया... कुल हमलाकरयि हनस्सन्देि किा जा

सकिा िै कक आिायश र्ुर्कल को जोइहििास पंिांग रूप में प्राप्तहुआ थाउसे उन्िोंने मानिीयर्हि से अनुप्राहणिकर कदया।’ कफर भी आिायश र्ुर्कल की इहििास दृहि की भी कुछ सीमाएँ िैं। उन्िोंने अनेक स्थानों पर हिधेयिादी पद्धहि के

आधार पर हजस िरि रिनाकारों के समय को साहिहत्यक कृहियों के आधार पर व्याख्याहयि करने की कोहर्र् की िै, िि

िकशसंगि प्रिीि निीं िोिी िै। जैसे, भि कहियों को मुसलमानी र्ासन की दासिाजन्य हनरार्ा से उत्पन्न बिाना।” लेककन यि उनके युग के जीिन-जगि सम्बन्धी दृहिकोण की असंगहि थी। नहलन जी के समान नामिर जी मानिे िैं कक आिायश हद्विेदी ने आिायश र्ुर्कल के बाद साहित्येहििास हिन्िन में एक नई परम्परा का सूत्रपाि ककया। उन्िोंने पूिशििी व्यहििादी

इहििास-प्रणाली के स्थान पर सामाहजक अथिा जािीय ऐहििाहसक प्रणाली के आधार पर ‘हिन्दी साहित्य की भूहमका’

हलखकर हिधेयिादी हिन्िन के कारण उत्पन्न हुई ररििा को पूरा करने का प्रयास ककया। यि पुस्िक हिन्दी साहित्य की

प्रमुख प्रिृहत्तयों के उद्गम स्थलों का पिा देिे हुए रूकढ़ और निीनिा के ह्रास-हिकास का संहक्षप्त रिनात्मक कोष िै। ककन्िु

हद्विेदी जी के भाििादी ऐहििाहसक दृहिकोण की भी अपनी सीमाएँ िैं।

नामिर ससि ने पाँििें दर्क के हिन्दी साहित्य की हस्थहियों पर हििार करिे हुए बिलाया कक इस दौर में इहििास को

िटस्थिा और हनष्पक्षिा के नाम पर िथ्यपरक और दृहिकोण रहिि बनाने की कोहर्र् की गई। जबकक मानि इहििास की

प्रिािमान धारा में धारा और ककनारा सब कुछ मनुष्य िी िै; िटस्थ कोई निीं। जो हिरोधी धाराओं के संघषश से घबड़ाकर हनष्पक्षिा में हिश्राम करना िाििा िै िि प्रिाि पहिि िोकर अनजाने िी इहििास हिरोधी धारा में जा पड़िा िै। इसके

अलािा उन्िोंने हिस्िार से साहिहत्यक इहििास के हलए ऐहििाहसक भौहिकिादी दृहिकोण और द्वन्द्वात्मक प्रणाली अथाशि

मार्कसशिादी ऐहििाहसक दृहिकोण को अपनाने पर बल कदया। साथ िी हिन्दी में इस िरि के प्रयास की र्कया सीमाएँ रिी

िैं, उनकी भी हिस्िार से ििाश की िै। आम िौर पर यि माना जािा िै कक साहित्य के िस्िु पक्ष को िी मार्कसशिादी

इहििास दृहि मित्त्ि देिी िै, लेककन उन्िोंने यि कदखाया कक 'ऐहििाहसक भौहिकिाद’ साहित्य के इहििास में हिषय िस्िु

के िी पररििशन की कुंजी निीं देिा, बहलक रूप ित्त्ि के हिकास का भी सूत्र बिािा।

3.3.4. साहित्येहििास हिरोधी दृहिकोण की पििान

नहलन हिलोिन र्माश के बाद समििा में हिन्दी साहित्येहििास दर्शन पर हििार करिे हुए मैनेजर पाण्डेय ने ‘साहित्य और इहििास दृहि’ (सन् 1981) नामक पुस्िक हलखी। यि पुस्िक दो खण्डों में हिभाहजि िै। ‘साहित्येहििास लेखन की

सैद्धाहन्िक समस्याएँ’ नामक पिला खण्ड सैद्धाहन्िक पक्ष से सम्बद्ध िै और दूसरा खण्ड ‘हिन्दी साहित्य के इहििास लेखन की कदर्ाएँ’ बिािे हुए हलखा गया िै। पुस्िक के सैद्धाहन्िक खण्ड में ‘साहित्य का इहििास र्कया िै’, ‘समकालीन इहििास

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हिरोधी साहित्य हिन्िन’, ‘संरिनािाद और साहित्य का इहििास’

‘साहित्य का इहििास और र्ैलीहिज्ञान’ और‘आलोिना और इहििास’ र्ीषशक अध्याय िैं। दूसरे खण्ड में ‘साहित्य के

सामाहजक आधार की खोज’, ‘परम्पराओं की हनरन्िरिा का अनुर्ीलन’, ‘जािीय साहित्य की प्रगहि की पििान’,

‘स्िािन््योत्तर हिन्दी साहित्य के इहििास लेखन की समस्याएँ’ नामक अध्याय िैं; हजसके अन्िगशि क्रमर्ः रामिन्र र्ुर्कल,

िजारीप्रसाद हद्विेदी, रामहिलास र्माश की इहििास दृहि के बिाने इहििास लेखन सम्बन्धी सििन का उद्घाटन करना

लेखक का अभीि रिा िै।

सन् 1960 के आसपास हिन्दी साहित्य और समाज में हजस नए ककस्म के रूपिाद और सौन्दयशिाद का प्रिार र्ुरु हुआ था

उनकी जड़े पहश्चमी आलोिना में हिद्यमान थीं। साहित्य को समाज, इहििास और परम्परा से काटकर र्ुद्ध सौन्दयश की

खोज की जा रिी थी। र्ाश्वििा और सािशभौहमकिा को साहित्य में मूलय की िरि बरिा जा रिा था। संरिनािादी और उत्तर-संरिनािादी िैिाररकी के प्रभाि में साहित्य को हसफश भाहषक संरिनात्मक हनर्णमहि मानिे हुए साहित्य के रूप सम्बन्धी पररििशनों को िी साहिहत्यक पररििशन की कसौटी बना देने पर जोर बढ़ा था। कुल हमलाकर पुराने किस्म के

रीहििादी और नए किस्म के आधुहनकिािाकदयों का कदलिस्प गठजोड़ साहित्य के इहििास और साहित्य के प्रहि

ऐहििाहसक दृहिकोण के हखलाफ सकक्रय था। साहित्य हिरोधी इन िरकीबों को नकारिे हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य की सामाहजकिा के सन्दभश में इहििास-दृहि का प्रहिपादन ककया। उन्िोंने इस बाि पर बल कदया कक 'साहित्य केस्िरूप और हिकास को ऐहििाहसक दृहि से समझने पर िी व्यापक सामाहजक सन्दभशमें साहित्य की क्राहन्िकारी भूहमका को

पििाना जा सकिा िै।' और बगैर ऐहििाहसक ज्ञान के न िो साहित्य का ममश समझा जा सकिा िै और न िी उसकी

रूपगि हिहर्ििा को। उन्िोंने साफ िौर पर किा कक संस्कृहि और साहित्य के क्षेत्र में र्ासक िगश के प्रहिहनहध और सेिक बुहद्धजीिी िी रूपिाद और आधुहनकिा के नाम पर साहित्य को समाज और इहििास से पृथक बिािे िैं। साहित्य के

जनपक्ष को जीहिि रखने के हलए इन पुरानपहन्थयों, आधुहनकिािाकदयों और रूपिाकदयों के हिरुद्ध हििारधारात्मक संघषश िेज करना आिश्यक िै।

मित्त्िपूणश बाि यि िै कक इहििासकार इहििास लेखन की प्रकक्रया में, हजनसे लेखक िैिाररक रूप से पूरी िरि सिमि

निीं िोिा िै, उनके भी हििारों के प्रहि पूरा आदर देिे हुए संक्षेप में उस पूरी हििार प्रकक्रया को पाठक के सामने स्पििा

के साथ रख कर िी उसपर अपनी राय कायम करिा िै। इसी िरि िि, इहििास दर्शन सम्बन्धी समकालीन बिसों को भी

सिी पररप्रेक्ष्य प्रदान करने की जरूरि समझिा िै। जैसे रामिन्र र्ुर्कल पर हिधेयिाद का आरोप लगाने सम्बन्धी नहलन हिलोिन र्माश के हििार के साथ बिस िो या जािीय प्रगहि की पििान की रामहिलास र्माश की धारणा या कफर स्िािं्योत्तर हिन्दी साहित्य के लेखन को मोिभंग के मुिािरे में अहभव्यि करने की नामिर ससि की धारणा ; इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन की प्रकक्रयाएँिमेर्ा समकालीन हििारधाराओं से प्रभाहिि िोिी िै।

3.3.5. साहित्य इहििास की स्त्री दृहि

िाल के दर्कों में इहििास लेखन सम्बन्धी हिन्िन में अहस्ित्त्ििादी हिमर्ों के कारण नये इहििास लेखन की माँग बड़ी

िै। ििशमान स्त्री-दहलि सिालों ने इहििास सम्बन्धी हिन्िन को गिराई से प्रभाहिि ककया िै। इस सन्दभश में िर्णिि

लेहखका सुमन राजे के इहििास सम्बन्धी लेखन पर हििार ककया जा सकिा िै। सुमन राजे ने हिन्दी साहित्य के इहििास

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लेखन को एक नई दृहि प्रदान की और िि दृहि िैᅳ स्त्री दृहि। उन्िोंने

हिन्दी साहित्य के इहििास सम्बन्धी िार पुस्िकें हलखींᅳ 1. साहित्येहििास : संरिना और स्िरूप (सन् 1975) 2. साहित्येहििास : आकदकाल (सन् 1976)

3. हिन्दी साहित्य का आधा इहििास (सन् 2003) 4. इहििास में स्त्री (सन् 2012)मृत्यूपरान्ि

अहन्िम दोनों पुस्िकों में िि इहििास में स्त्री के स्थान की िलार् करिी िैं। िूँकक हपछले कुछ दर्कों में जब इहििास में

सबालटनश को जगि हमलना र्ुरू हुआ, स्त्री हिमर्श केन्र में आया। सुमन राजे भी इसी क्रम में अपने साहित्य इहििास हिन्िन में स्त्री को हिर्ेष मित्त्ि देिी िैं और हिन्दी साहित्येहििास के समानान्िर हिन्दी स्त्री साहित्य इहििास का हनमाशण करिी िैं। िि हलखिी िैं कक 'साहित्य लेखन की एक अिहच्छन्न धारा रिी िै, आिश्यकिा िै उसे खोज हनकालने की।'

प्रायः स्त्रीिादी हििारकों ने इहििास पर आरोप लगाया िै कक 'इहििास पुरुषों का इहििास िोिा िै; र्कयोंकक इहििास अपनी प्रकृहि में सामन्िी िोिा िै और इहििास की सामन्िी प्रकृहि लेखन में कम, सामिी ियन एिं िैिाररकी पर अहधक लागू िोिी िै। सामिी ियन की यि सामन्िी प्रकृहि काल के साथ िथ्यों को छोड़ देिी िै। सुमन राजे कििी िैं कक 'काल ने

ककिना छोड़ा िै इससे बड़ी बाि यि िै कक ककिना बिा रि सका िै। सबसे बड़ी बाि िो यिी िै कक अिहर्ि में से िम ककिना उपलब्ध कर पािे िैं या करना िाििे िैं।' सुमन राजे के अनुसार जो अंर् खाली छूट गए िैं या छोड़ कदए गए िैं

उनके भराि में हमलिा िै महिला लेखन। सुमन राजे इस छूटे अंर् को भरने के हलए महिला लेखन के ऊपर ध्यान देने पर जोर देिी िैं।

4. हनष्कषश

सार रूप में यि किा जा सकिा िै कक साहित्य के इहििास दर्शन सम्बन्धी हिन्िन का हिन्दी साहित्य में हिकास साहित्य के नए आयामों को पििानने और हिकहसि करने की आकांक्षा का पररणाम िै। प्राथहमक दर्ा में िोने के बािजूद इस दर्ा

में अभी हजिना भी काम हुआ िै िि पररमाण की दृहि से ज्यादा भले न िो, ककन्िु पररणाम की दृहि से अिश्य िी

मित्त्िपूणश िै और आगे इस कदर्ा में िोने िाले हिन्िन को प्रभाहिि करने में सक्षम भी। कई अनसुलझे प्रश्नों के जिाब आगे

हमलेंगे पर उपयुशि काम इस कदर्ा में मित्त्िपूणश सन्दभश की भूहमका हनभाएँगे, इसमें सन्देि निीं।

References