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HND : हिन्दी P15 : पाश्चात्य काव्यशास्त्र

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HND : हिन्दी P15 : पाश्चात्य काव्यशास्त्र

M19: टी.एस. इहियट का काव्य हसद्धान्त

हिषय हिन्दी

प्रश्नपत्र सं. एिं शीषषक P14 : साहित्य का इहतिास दशषन

इकाई सं. एिं शीषषक M 19: टी. एस. इहियट का काव्य हसद्धान्त

इकाई टैग HND_P14_M19

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश्नपत्र-संयोजक प्रो. अरुण िोता

इकाई-िेखक प्रो. रहि श्रीिास्ति

इकाई समीक्षक प्रो. एस.सी.कुमार भाषा सम्पादक प्रो. देिशंकर निीन पाठ का प्रारूप

1.

पाठ का उद्देश्य

2.

प्रस्तािना

3.

हनिैयहिकता का हसद्धान्त

4.

िस्तुपरक सापेक्षता का हसद्धान्त

5.

हनष्कषष

(2)

HND : हिन्दी P15 : पाश्चात्य काव्यशास्त्र

M19: टी.एस. इहियट का काव्य हसद्धान्त 1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ को पढ़ने के उपरान्त आप-

 टी.एस. इहियट के काव्य हसद्धान्तों को समझ सकेंगे।

 टी.एस. इहियट का हनिैहयिकता का हसद्धान्त जान सकेंगे।

 टी.एस. इहियट का परम्परा का हसद्धान्त समझ सकेंगे।

 टी.एस. इहियट का स्िछन्दन्तािाद सम्बन्धी मत जान पाएँगे।

2. प्रस्तािना

बीसिीं सदी के अँगरेजी साहित्य में इहियट का मित्त्िपूणष स्थान िै। इहियट मूितः कहि थे। अपने साहित्य हिन्तन को

उन्िोंने ‘िकषशॉप क्रिटटहसज्म’ कायषशािाई आिोिना किा। अथाषत् काव्य सृजन के प्रसंग में उसे अपने हिन्तन का हिस्तार किा िै। दूसरे शब्दों में अपनी कहिताओं की रिना प्रक्रिया के दौरान उन्िें जो अनुभि हमिे उसी आधार पर उन्िोंने

आिोिनात्मक हनबन्ध हिखे। हिन्दी में अज्ञेय, सािी आक्रद कहि िेखकों द्वारा हिखी गई आिोिनाएँ इसी कोटट के

अन्तगषत आती िैं। इहियट रूढ़ अथों में आिोिक निीं िैं। उन्िोंने हिस्तृत और िमबद्ध रीहत से क्रकसी निीन हसद्धान्त की

स्थापना भी निीं की िै। उनके हनबन्धों में व्याििाटरक समीक्षा के साथ घुिहमि कर िी हसद्धान्त सामने आए िैं।

इहियट के आिोिनात्मक हििारों का पििा मित्त्िपूणष हनबन्ध परम्परा और व्यहिगत प्रहतभा (ट्रेहिशन एण्ि

इहण्िहिजुअि टैिेण्ट) सन् 1919 में प्रकाहशत हुआ। इसी िम में उनके दो हनबन्ध द परफेक्ट क्रिटटक और द इम्परफेक्ट क्रिटटक प्रकाहशत हुए। ये हनबन्ध सन् 1920 में प्रकाहशत इहियट की पुस्तक द सेिेि िुि- पहित्र जंगि में संकहित िै। ये

हनबन्ध इसहिए भी मित्त्िपूणष िैं क्योंक्रक इनमें न केिि काव्य की रिना प्रक्रिया को समझाया िैं बहकक आिोिना प्रक्रिया

का रिस्य भी बताया िै। इन हनबन्धों की एक हिशेषता यि भी िै की उनसे अँगरेजी काव्य में एक नई हिन्तन प्रक्रिया की

शुरुआत हुई, हजसकी पटरणहत नई आिोिना “एंग्िोअमेंटरकन न्यू क्रिटटहसज्म” में हुई। ये हनबन्ध रोमाहण्टक काव्य के

हिरुद्ध ‘क्िाहसकि’ शास्त्रीय काव्य-हसद्धान्तों की स्थापना करते िैं।

इहियट ने अरस्तू को अपना आदशष माना िै। इससे भी उनके क्िाहसकी हिश्वासों का पता ििता िै। इहियट ने रेहमिी

गोमों का भी ऋण स्िीकार क्रकया िै। फ्रेंि प्रतीकिाक्रदयों का प्रभाि भी इहियट पर क्रदखाई देता िै। फ्रेंि प्रतीकिाक्रदयों की

यि धारणा थी क्रक कहिता का अथष-ग्रिण संकेत से िोना िाहिए, क्रकसी हिस्तृत सूिना द्वारा निीं। इहियट पर टी.ई. ह्यूम का प्रभाि मित्त्िपूणष िै। दोनों हििारकों के परम्परा सम्बन्धी हििारों में काफ़ी समानताएँ िैं, क्रकन्तु इससे भी अहधक ध्यान देने योग्य िै, ह्यूम की मूर्त्ष अहभव्यहि सम्बन्धी धारणा। इहियट के ‘ऑब्जेहक्टि कोटरिेटटि’ िस्तुपरक सादृश्य से

हमिती जुिती अनेक बातें ह्यूम ने हिखीं िैं। िि भािनाओं और हििारों को मूर्त्ष अहभव्यहि प्रदान करने के पक्षपाती थे।

इहियट पर एजरा पाउण्ि का भी प्रभाि क्रदखता िै, जो फ़्ांस में हबम्बिादी आन्दोिन के जनक थे। उन्िोंने सन् 1910 में

यि स्िीकार क्रकया क्रक “कहिता उस अंकगहणत की तरि िै जो मानि संिेगों के हिए समीकरण प्रस्तुत करता िै।” बाद में

सन् 1935 में िे किते िैं क्रक “कहिता हसफष संकेत करती िै, िस्तुस्थापना निीं।” इन्िीं प्रािीन और निीन प्रभािों को

आत्मसात करके इहियट ने आधुहनक क्िाहसहसजम का हनमाषण क्रकया।

पूिष की स्थापनाओं को ध्िस्त क्रकये हबना कोई भी हिन्तक अपनी मान्यताओं को स्िीकृहत निीं क्रदिा सकता। इहियट ने

मैथ्यू अनाषकि की साहित्य की पटरभाषा क्रक िि अन्ततः जीिन की आिोिना िै, को आधारिीन किा क्योंक्रक अनाषकि

कहिता से नैहतकता की माँग करते थे और आधुहनक औद्योहगक सभ्यता द्वारा हनर्ममत िोकहप्रय संस्कृहत के साहित्य पर पड़ने िािे दुष्पटरणामों का आकिन कर साहित्य सजषकों के अकपसंख्यकों की संस्कृहत के पक्षधर थे। सेंट्सबरी की

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ऐहतिाहसक एिं जीिनीपरक आिोिना पद्धहत भी इहियट को दोषपूणष

प्रतीत हुई। िे उसके खण्िन में हिखते िैं क्रक “ईमानदार आिोिना और संिेदनशीि अनुशीिन का हिषय कहि निीं

कहिता िोती िै।” इसी तरि िाकटर पेटर और ऑस्कर िाइकि की व्यहििादी प्रभािपरक आिोिना के खण्िन में उन्िोंने

तकष क्रदया क्रक पाठक पर रिना के पड़ने िािे प्रभाि की सत्यता को आिोिक कैसे बता सकता िै? िि भी उस हस्थहत में

जबक्रक एक िी रिना का अिग-अिग व्यहि पर पड़ने िािा प्रभाि हभन्न िो। क्रकन्तु इहियट के आिमण का हशकार सबसे

ज्यादा रोमाहण्टक कहि-आिोिक हुए।

स्िछन्दतािादी-रोमैहण्टक कहियों और आिोिकों ने काव्य को आत्माहभव्यहि माना। आत्म से तात्पयष िै िैयहिकता और अहभव्यहि से अहभप्राय िै स्ितःस्फूतष अहभव्यंजना। िर्डसषिथष ने काव्य के सम्बन्ध में स्थापना दी क्रक िि एकान्त में जन्मे

हुए शहिशािी भािों और अनुभूहतयों का सिज स्फुरण िै।काव्य के हनयम कहियों की आकांक्षाओं और संिेदनाओं से

हनधाषटरत िोते िैं। इहियट ने स्िछन्दतािादी काव्य दृहि के हिरुद्ध हिद्रोि क्रकया। स्िछन्दतािाक्रदयों की यि धारणा क्रक मानि व्यहित्ि में असीम सम्भािनाएँ िोती िैं, इहियट ने हसरे से ख़ाटरज क्रकया। ह्यूम की तरि उनका भी किना था क्रक मनुष्य का व्यहित्ि सीहमत िोता िै। इहियट ने कहि-उपन्यासकार िी.एि. िारेंस के सम्बन्ध में हिखा िै क्रक उनकी

आन्तटरक ज्योहत उनका मागषदशषन करा रिी थी क्रकन्तु यि आन्तटरक ज्योहत परम अहिश्वसनीय और धोखेबाज मागषदशषक

िै। अगर आिोिना का िक्ष्य उन िस्तुगत प्रहतमानों की खोज करना िै हजसके आधार पर किा का मूकयांकन िो तो कहि

की आन्तटरक आिाज जैसी अमूर्त्ष शब्दाििी को छोड़ना िोगा।

इहियट से पूिष टी.ई.ह्यूम 1913 में रोमाहण्टक काव्यदृहि का हिरोध कर िुके थे और भािुकतापूणष रूमाहनयत और तरिता के स्थान पर िस्तुहनष्ठता और बौहद्धक रुखाई को श्रेष्ठ काव्य की पििान बतिा िुके थे। सन् 1928 में इहियट ने

एक घोषणा की, “मैं राजनीहत में राज्सर्त्ािादी, धमष में एंग्िोकैथोहिक तथा साहित्य में परम्परािादी हँ।” रोमाहण्टक कहिता की पृष्ठभूहम में प्रोटेस्टेण्ट मत की भूहमका मित्त्िपूणष रिी िै। इहियट ने माना क्रक िूँक्रक रोमाहण्टक कहिता के मूि

में प्रोटेस्टेण्ट मत िै, इसी कारण यि इतना िोकहप्रय हुआ। एंग्िोकैथोहिक िोने की िजि से भी इहियट उसके हिरोधी थे।

इसका उकिेख उन्िोंने अपनी कहिता ‘स्ट्रेंज गॉि’ में भी क्रकया िै। उन्िोंने अन्यत्र भी हिखा िै “जब नैहतकता और नैहतक मानदण्ि परम्परा और मताग्रि के अधीन निीं रि जाते और जब प्रत्येक मनुष्य नैहतकता के हनजी हनयमों का हनयामक बन जाता िै तो व्यहित्ि खतरनाक ढंग से मित्त्िपूणष िो जाता िै।” प्रोटेस्टेण्ट मत ने इस प्रकार की अराजकता को प्रारम्भ क्रकया। उसके प्रभाि में रोमाहण्टक कहि भी आये हजसके फिस्िरूप कहिता िैयहिकता से भरी जाने िगी। इहियट इसके

हिककप में समूि के शरणागत हुए और िि समूि िै “परम्परा”।

इहियट ने हिखा िै क्रक “किाकार की प्रगहत एक सतत आत्मदान की, सतत हतरोभाि की प्रक्रिया िै।” अिम् का हिसजषन इहियट का मित्त्िपूणष काव्य हसद्धान्त िै हजसे ‘हनिैयहिकता का हसद्धान्त’ भी किते िैं। उन्िोंने काव्य की नई पटरभाषा

दी। स्िछन्दतािादी काव्य के समानान्तर और उसके िजन पर उन्िोंने हिखा क्रक “ कहिता भािों की अहभव्यहि निीं, भािों से पिायन िै; िि व्यहित्ि अथिा अिम् की अहभव्यहि निीं, उसका हनषेध िै।” अिम् के हनषेध का अथष िै क्रकसी

हिराट सर्त्ा में स्ियं को घोि देना, िीन कर देना। यि हिराट सर्त्ा काव्य-परम्परा िै। इस परम्परा से अपने को जोड़ देना, अपने अिम् को,व्यहित्ि को हििहयत करना िी सजषक को हनिैयहिक बनाता िै क्योंक्रक परम्परा-परम्पराओं का हनमाषण एक सामूहिक प्रयास का पटरणाम िै। किाकार के सीहमत व्यहित्ि का हतरोिन िृिर्त्र साहित्य परम्परा में िो तो यि

कहि के हिकास का िक्षण िै, उसके अिरुद्ध सृजनशीिता का निीं। अतः परम्परािादी िोना सदैि हपछड़ेपन का सूिक निीं िै। दरअसि एक जागरूक ितषमान अतीत की एक नए ढंग की और नए पटरणाम में अनुभूहत का नाम िै, जैसी और हजतनी अनुभूहत अतीत को स्ियं न थी। हजसे परम्परा का ज्ञान निीं, िि अन्ध परम्परापूजक िै। िि साधक निीं िो

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सकता क्योंक्रक साधना की शहि परम्परा से िी हमिती िै। अज्ञेय ने

‘हत्रशंकु’ में संकहित अपने हनबन्ध ‘रूक्रढ़ और मौहिकता' में हिखा िै “... परम्परा के हिरुद्ध िमारा कोई हिरोध िो सकता

िै तो यिी क्रक िम अपने को परम्परा के आगे जोड़ दें।” यि अकारण निीं िै क्रक इहियट ने अपने अत्यन्त मित्त्िपूणष हनबन्ध का नाम परम्परा और िैयहिक प्रहतभा ‘ट्रेहिशन एण्ि इहन्िहिसुअि टैिेण्ट’ रखा हजसका स्पि गुणधमष िै। एक उच्च स्तर का किाकार हनरन्तर अपने छोटे व्यहित्ि को, अपने तात्काहिक क्षहणक अहस्तत्ि को एक मिान और हिशाि अहस्तत्ि

पर न्योछािर करता िै। उसका यि सतत आत्मदान उसके व्यहित्ि की मृत्यु का पटरिायक निीं िै और न िी उसकी

सजषनात्मक प्रहतभा का अन्त िी। इसके हिपरीत ऐहतिाहसक िेतना के सिारे िि िस्तुतः उस परम्परा को भी शोहधत और पटरिर्मधत करता िै हजस पर िि स्ियं न्योछािर िै। इस प्रकार किाकार छोटे व्यहित्ि से बड़े व्यहित्ि की ओर बढ़ता िै

जो उसकी प्रगहत का सूिक िै।

इहियट ने परम्परा का व्यापक अथष क्रदया िै। उन्िोंने हिखा िै क्रक “व्यहि परम्परा के साथ जन्म निीं िेता। उसे सायास ग्रिण करना पड़ता िै। उसकी हसहद्ध के हिए मेंिनत जरुरी िै। यि िेखक को उसके समय, स्थान एिं समकािीनता का

पटरिय देती िै... कोई भी कहि या किाकार अकेिे अपना कोई अथष निीं रखता िै। उसका मित्ि, उसका सिी मूकयांकन उसके पीछे के कहि-किाकारों से उसकी तुिना भेद आक्रद में हनहित िोता िै। ऐसे में कहि व्यहित्ि के प्रकाशन िेतु शायद

िी कोई जगि िो...। इहियट का तकष िै क्रक िैयहिकता हजस पर रोमाहण्टक कहिता में इतना बि िै, कोई शाश्वत प्रपंि

निीं िै। बहकक िि िाहनप्रद िै। बड़ा कहि िि िै जो िैयहिकता के प्रदशषन का हनषेध करे, परम्परा को साधे। िैयहिक अनुभूहत के प्रकाशन को िेकर ििने िािा बड़ा सजषक निीं िो सकता। परम्परा की जगि काव्य रिना में सुरहक्षत िोनी

िाहिए। कहि की प्रहतभा केिि मध्यस्थ रूप में उसी को काव्य में प्रहतफहित िोने में सिायक िै। इहियट की यि धारणा

रोमैहण्टक काव्य के हिरुद्ध िै।

‘परम्परा’ से इहियट का मतिब िै, इहतिासबोध। परम्पराबोध का दूसरा नाम िै इहतिासभािना, हजसमें अतीत की

अतीतता का निीं उसकी ितषमानता का ज्ञान भी समाहिि िै। आशय यि िै क्रक कोई कृहत हजस समय में हिखी गई और आज हजस मािौि में िि पढ़ी जा रिी िै उसके अिग-अिग क्रकन्तु समानान्तर युगपतबोध िी इहतिासबोध िै। मसिन तुिसीदास को पढ़ते हुए उनके समय और समाज की संिेदनशीिता, रिनाशीिता और आज के समय और समाज की

देश-कािगत सापेक्ष हभन्नता की अिग-अिग क्रकन्तु पारस्पटरक अन्तःसम्बद्धता की युगपत पििान िी िि इहतिासबोध िै

जो जन्म के साथ निीं हमिता, उसे श्रमपूिषक िाहसि करना पड़ता िै। दूसरे शब्दों में, आइना िेिरे के बहुत करीब िो

िेिरा निीं क्रदखेगा; िि बहुत दूर िो तब भी निीं क्रदखेगा। यि समझ िाहसि करनी पड़ती िै। इहियट की दृहि में यि

हजतना सजषनात्मक स्तर पर सिी िै उतना िी आिोिनात्मक स्तर पर भी। यि किकर इहियट ने परम्परा की नक़ि या

अनुकरण की कोई गुंजाइश निीं छोड़ी िै। उनके तईं अतीत की ितषमानता का अथष िै उसमें हनहित जीहित अंश की

पििान और उसके सजषनात्मक उपयोग की दक्षता जो सजषनशीि प्रयास से हमिती िै अथाषत् िैयहिक प्रहतभा।

3. हनिैयहिकता का हसद्धान्त

हनिैयहिकता के पक्ष में इहियट का एक दूसरा प्रभािी तकष िै: “कहि के पास अहभव्यि करने के हिए कोई व्यहित्ि निीं

िोता, एक हिहशि माध्यम िोता िै... व्यहित्ि निीं। हजसमें मन पर पड़े हुए प्रभाि अजीब और अप्रत्याहशत ढंग से संयुि

िोते िैं। अपने तकष के समथषन में उन्िोंने हिज्ञान का सिारा हिया। हजस तरि प्िेटटनम की उपहस्थहत में ऑक्सीजन और सकफर िाई आक्साइि के योग से एक तीसरे यौहगक सक्युरस एहसि का हनमाषण िोता िै, क्रकन्तु प्िेटटनम क्रकसी भी

रासायहनक प्रहतिया से अप्रभाहित रिता िै उसी तरि कहि का मन हिहभन्न भािनाओं, हििार और अनुभूहतयों के संयोग में हसफष उत्प्रेरक की भूहमका हनभाता िै। इस संयोग से िी कहिता का जन्म िोता िै क्रकन्तु कहि व्यहित्ि मन प्िेटटनम के

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टुकड़े की तरि अप्रभाहित रिता िै। कहिता के उपादानों से न तो कहि

प्रभाहित िोता िै, न िी कहि व्यहित्ि का कोई अंश िी कहिता में िोता िै। इहियट ने कहिता के मायािी ऐन्द्रजाहिक प्रभा-मण्िि को तोड़ने के हिए सायास िैज्ञाहनक सादृश्य का सिारा हिया। उन्िोंने कहि व्यहित्ि को उत्प्रेरक माध्यम किा तो हसफष उसकी हनहष्ियता प्रमाहणत करने के हिए।

‘व्यहित्ि’ और ‘माध्यम’ शब्दों से िी िैयहिक और हनिैयहिक कहिता का अन्तर स्पि िै। हजस तरि सृहि का कताष ईश्वर

िै, क्रकन्तु िि क्रदखाई निीं देता, उसी तरि कहि कहिता की रिना अिश्य करता िै क्रकन्तु िि पूरी रिना में अन्तधाषन बना

रिता िै। कहि में अपनी सृहि में हििुप्त िोने की योग्यता और क्षमता िोनी िाहिए क्योंक्रक “िस्तुतः िि ऐसा पटरष्कृत पूणष माध्यम िोता िै हजसमें हिशेष अथिा अत्यन्त िैहिध्यपूणष भािनाओं को नए संयोगों में ढिने की स्ितन्त्रता िोती िै।”

इस सन्दभष में इहियट का तीसरा तकष िै : भोिा मनुष्य िै और रिता मन िै और इन दोनों में हजतना अन्तर िोगा कहि

या किाकार उतना िी मिान िोगा। किाकार हजतना हसद्धस्त िोगा उतना िी उसमें भोिा मानि और स्रिा मन परस्पर पृथक रिेंगे और उतनी िी शुद्ध रीहत से मन अपने उपादान रूप िासनाओं को आत्मसात और रूपान्तटरत करेगा।

यिाँ अनुभि और सृजन में अन्तर क्रकया गया िै। यि अन्तर िी कहि की मिानता का आधार िोता िै। प्रत्यक्षानुभूहत और रसानुभूहत में जो अन्तर िोता िै उसी अन्तर को इस हसद्धान्त में इहियट ने प्रकारान्तर से स्पि क्रकया िै। भोगने और रिने

में हनहित क्षमता का स्तर एक जैसा निीं िोता। पन्त ने हिखा िै– “अपने मधु में हिपटा भ्रमर/निीं कर सकता गुंजन ।”

स्ियं इहियट ने‘िि सांग ऑफ़ अकफ्रेि प्रूफाक’ में हिखा िै क्रक “िोंठ तभी गुनगुनाते िैं, जब िूम निीं पाते।” मधुपान और गुंजन, गुनगुनाना और िूमना, भोगना और रिना दो हभन्न क्रियाएँ िैं। यि अन्तर न िो या कम िो तो कहिता या किा

कच्चा माि या अपटरपक्वािस्था िोगी। ऐसी रिनाएँ प्रकृतिादी िोंगी अथाषत् हनतान्त अनुकृहत। उसमें रिनाकार के

अनुभिों का पटरष्कार निीं िो सकता। दोनों का अन्तर रिनाकार को पटरष्कृत-पटरपक्व बनाता िै, सजषनात्मक बनाता िै।

इहियट ने हिखा िै; “मित्त्ि भािों, घटक तत्त्िों की मिानता या तीव्रता का निीं बहकक किात्मक प्रक्रिया की तीव्रता का िै

हजसके कारण ये तत्त्ि घुिहमि कर एकात्म िो जाते िैं। भाि के रूपान्तरण में मिान िैहिध्य सम्भि िोता िै।” आशय यि

िै क्रक मिान या तीव्र अनुभूहतयों अथिा भािों के उद्रेक से कहिता निीं िोती बहकक ये घटक तत्त्ि हजस प्रक्रिया के द्वारा

एकात्म िोते िैं, उस प्रक्रिया की प्रभािशीिता कहिता को मिान बनाती िै। किात्मक प्रक्रिया की तीव्रता या दबाि

मित्त्िपूणष िै, ििी हनणाषयक िोता िै , स्ियं घटक तत्त्िों की तीव्रता या मिानता मित्त्िपूणष निीं िै। उदािरण के हिए भिभूहत की मिानता मानिीय करुणा के िुनाि में निीं बहकक उस िुनाि को किात्मक प्रक्रिया से गुजर कर अहभव्यहि

देने में िैं। उसी से यि पुि िोता िै क्रक भोिा मानि और रिहयता मानस परस्पर सम्बद्ध िोते हुए भी पृथक िैं। रोमाहण्टक कहिताएँ इसहिए मिान निीं हुई क्रक ििाँ भोिा मानि एिं रिना मानस हमि कर एक िो गए िैं।

इहियट ने कहिता को हनिैयहिक किकर उसे कहि से पूणषतः अिग कर क्रदया तथा कहिता को शुद्ध मनोरंजन की दृहि से

देखा– “कहिता उच्च कोटट का मनोरंजन िै, इसको मनोरंजन किने का मतिब यि निीं िै क्रक... िम इसकी कोई नई पटरभाषा दे रिें िैं... इसके अहतटरि और कुछ किेंगे तो और बड़ा झूठ िोगा।” कहिता को उच्च कोटट का मनोरंजन मानकर इहियट ने साहित्य को तमाम सामाहजक हजम्मेदाटरयों से मुि रखा और कहिता की शुद्धता पर बि क्रदया।

4. िस्तुपरक सापेक्षता का हसद्धान्त

हनिैयहिकता से सम्बहन्धत इहियट का एक अन्य हसद्धान्त िै, ‘िस्तुपरक सापेक्षता’। पाठक और कहिता का सम्बन्ध

‘िस्तुपरक सादृश्य’ के द्वारा हनरूहपत िोता िै। उसके हिषय में इहियट का मत िै क्रक “यक्रद क्रकसी भाि को किा के रूप में

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व्यि करना िै तो िि िै एक ऐसे सम्बद्ध िस्तुगत तथ्य की खोज हजसके

द्वारा दूसरे व्यहि िैसे िी भाि अपने मन में अनुभि कर सकें। दूसरे शब्दों में, िस्तुओं का एकीकरण, एकहस्थहत, घटनाओं

की शृंखिा का एक समीकरण के रूप में हजि िोना िाहिए हजससे क्रक ििी भाि तुरन्त उदबुद्ध िो जाएँ जो कहि का भी

अपना िै।”

अंग्रेज आिोिक फ्रैंक करमोि ने ‘रोमैहण्टक इमेंज’ नामक पुस्तक में िस्तुपरक सादृश्य को कहि मन की अहभव्यहि का

साधन किा िै और एजरा पाउण्ि ने उसकी तुिना अंकगहणत के समीकरण से की िै जो अमूर्त्ष भािों का मूर्मतकरण करते

िैं। उसी से कहिता में हित्रात्मकत-हबम्ब हनर्ममत िोता िै और अमूर्त्षन की जगि िस्तुपरकता िेती िै। ‘िेमिेट एण्ि हिज प्राब्िम्स’ हनबन्ध में इहियट ने ‘िेमिेट’ नाटक को एक असफि कृहत किा क्योंक्रक उसमें शेक्सहपयर िेमिेट-नायक के

मनोहिज्ञान को व्यि करने में उपयुि िस्तुपरक सादृश्य का िुनाि निीं क्रकया िै। आिायष शुक्ि भी स्िीकार करते िैं क्रक

“कहिता में हिभािन व्यापार िोता िै।” इसे हबम्ब हिधान भी किा जा सकता िै क्योंक्रक कहिता में काम अथष ग्रिण से निीं

ििता, हबम्ब हिधान जरुरी िै। आशय क्रक काव्य भाषा हित्रात्मक िोनी िाहिए। अमूर्त्ष और अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्षीकरण िै,

िस्तुपरक सादृश्य क्योंक्रक जो अमूर्त्ष और अप्रत्यक्ष िै िि पाठक के बोध का हिषय निीं िो सकता और जो बोध का हिषय निीं िै, उसका साधारणीकरण भी निीं िो सकता। इसहिए इहियट बि देकर किते िैं,”जब िम कहिता पर हििार करते

िैं तो सबसे पििे उस पर कहिता के रूप में हििार करना िाहिए, न क्रक क्रकसी अन्य रूप में।

इस प्रकार इहियट ने आिोिना के नाम पर फैिे गदिश्रु भािुकतापूणष रोमैहण्टक उद्गारों और ििव्यों का हिरोध करते

हुए कहिता की आिोिना में िैयहिकता के स्थान पर िस्तुपरकता पर जोर क्रदया। साथ िी अपने पूिष समीक्षा के सभी

हसद्धान्तों की समीक्षा की और हजस नई पद्धहत को सामने रखा उसे ‘न्यू क्रिटटहसज्म’ के नाम से जाना जाता िै। इस तरि

उन्िोंने साहित्य-सृजन और उसके आस्िाद-हिश्लेषण की िैज्ञाहनक समीक्षा-पद्धहत का सूत्रपात क्रकया।

5.

हनष्कषष

संक्षेप में, बीसिीं सदी की साहिहत्यक आिोिना में इहियट ने साहिहत्यक समीक्षा के मित्त्िपूणष हसद्धान्तों का प्रणयन क्रकया। परम्परा पर आधुहनक दृहिकोण से हििार करते हुए उसने परम्परा को सिषथा त्याज्य निीं बताया। रिना में

हनिैयहिकता का समािेश कर उसे गिदश्रु भािुकता ि आत्माहभव्यहि के हित्रण से परे िटाया, हजससे किाकृहत एक कहि से इतर मिान स्िरुप हनर्ममत िो सके।

References