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HND : हहन्दी P3 : अधुहनक काव्य-2

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HND : हहन्दी P3 : अधुहनक काव्य-2

M26 : कुँवर नारायण का काव्य कथ्य

हवषय हहन्दी

प्रश् नपत्र सं. एवं शीषषक P3 : अधुहनक काव्य-2

आकाइ सं. एवं शीषषक M26 : कुँवर नारायण का काव्य कथ्य

आकाइ टैग HND_P3_M26

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश् नपत्र-संयोजक डॉ. ओमप्रकाश सिसह आकाइ-लेखक डॉ. रेखा सेठी

आकाइ-समीक्षक प्रो. महेन्रपाल शमाष भाषा-सम्पादक प्रो. देवशंकर नवीन

पाठ का प्रारूप 1. पाठ का ईद्देश्य 2. प्रस्तावना

3. अशा-हनराशा

4. प्रेम और प्रकृहत 5. व्यहि-समहि

6. सामाहजक प्रहतबद्धता

7. कहवता और मानवीयता

8. आहतहास और स्मृहत 9. परम्परा और अधुहनकता

10. हनष्कषष

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HND : हहन्दी P3 : अधुहनक काव्य-2

M26 : कुँवर नारायण का काव्य कथ्य

1. पाठ का ईद्देश्य

आस पाठ के ऄध्ययन के ईपरान्त अप–

 कुँवर नारायण की काव्य यात्रा का संहक्षप्त पररचय जान सकंगे।।

 एक कहव के रूप मं कुँवर नारायण के काव्य की हवहशिता समझ सकंगे।

 कुँवर नारायण की रचनाओं मं ईभरने वाले हवहवध सन्दभष स्पि कर सकंगे।।

 कुँवर नारायण के काव्य कथ्य की सम्र पहचान कु चुने ुएए हबन्दुओं के माध्यम से कर सकंगे।

2. प्रस्तावना

कुँवर नारायण हहन्दी के ईन कहवयं मं से हं हजनकी काव्य चेतना हनरन्तर सृजनरत रहते ुएए हवकहसत होती गइ है।

ऄपनी सभी रचनाओं मं कुँवर नारायण एक हचन्तनशील मनीषी कहव के रूप मं ईभरते हं जो ऄपने समय-समाज से गहरे

अबद्ध होते ुएए भी अधुहनक व्यहि मन की शंकाओं को केन्र मं रखते हं। कहव लगातार अत्मसंवाद करता ददखता है

ऄथाषत् ईनके यहाँ कु भी ऄहन्तम, हनहश् च त या रूढ़ नहं ईसमं वह गहतशीलता है जो मनुष्य का और मनुष्यत्व का

पररष्कार करती है। कुँवर नारायण बड़ी सहजता से दोनं पक्षं की सच् चाइ को पाठक के समक्ष ईजागर कर देते हं लेदकन ईनका मन हर बार ईस ओर झुकता है, जहाँ व्यहि-मन की संवेदनशीलता को बचाया जा सके।

लगभग ह दशक तक फैले रचना-काल मं कुँवर नारायण ने ऄनेक काव्य कृहतयं का सृजन दकया। ईनका पहला काव्य सं्र ह चक्रव्यूह सन् 1956 मं प्रकाहशत ुएअ। अशा-हनराशा के धूप- ाँही रंग, प्रकृहत और यौवन के मोहक हबम्ब, ऄहस्तत्व और इश् वर सम्बन्धी जीवन-व्यापी प्रश् न आस काव्य सं्र ह का पाश् वष हनर्ममत करते हं। ऄपने पहले काव्य सं्र ह के

साथ ही कुँवर नारायण ने हहन्दी कहवता के आहतहास मं ऄपनी सशि ईपहस्थहत दजष कर दी थी।

सन् 1961 मं पररवेश : हम-तुम अया हजसमं कहव के मन की बेचैनी को एक ददशा हमलती प्रतीत होती है। आस संकलन के प्रकाशन के बाद मुहिबोध ने कुँवर नारायण की कहवताओं के बारे मं कहा था दक ईनकी कहवता मं ऄन्तरात्मा की

पीहड़त हववेक चेतना और जीवन की अलोचना है। मुहिबोध ने कहव के सार रूप को पहचाना। वह ऄपने पररवेश के प्रहत सजग होकर भी व्यहि की ऄन्तरात्मा मं बसी संवेदनशीलता की हववेक दृहि से ऄनुप्राहणत था। वस्तुतः कुँवर नारायण बुएपरठत, बुएहवज्ञ रचनाकार हं। ईन्हंने संस्कृत के अदद ्र न्थं से लेकर हवश् व साहहत्य को अन्दोहलत करने वाले ऄनेक रचनाकारं को पढ़ा और ईनसे प्रभाहवत भी ुएए लेदकन जो प्रभाव ईन्हंने ्र हण दकया, ईन्हं मानस की ईन गहराआयं तक महसूस दकया, जहाँ वे कहव व्यहित्व का हहस्सा बन गए।

आसके बाद ईनकी दृहि परम्परा के ऄवगाहन की ओर मुड़ गइ। वह अधुहनक मनुष्य के संशयं, शंकाओं की प्रहतध्वहन परम्परा के पृष्ठों मं तलाशने लगे। आस सन्दभष मं सन् 1965 मं अत्मजयी का प्रकाशन एक महत्त्वपूणष घटना थी जो अगे

चलकर ईनकी स्थायी कीर्मत का अधार बनी। परम्परा और अधुहनकता के सामंजस्य का ऄगला पड़ाव वाजश्रवा के बहाने

(सन् 2008) मं सामने अया।

कुँवर नारायण के हवहभन् न काव्य संकलनं के बीच समय का लम्बा ऄन्तराल है। अत्मजयी के बाद सन् 1979 मं प्रकाहशत ऄपने सामने काव्य संकलन कहव का एक नया रूप प्रस्तुत करता है। यहाँ कहव का मुख्य सरोकार व्यवस्था की हवसंगहतयं

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के हशकार व्यहि की ऄसुरक्षा, भय और सन्त्रास को हचहत्रत करना है।

कुँवर नारायण घोहषत तौर पर प्रगहतशील या समाजवादी कहव नहं है दफर भी सत्ता की बबषरता पर ईनका संयत अक्रोश और अम अदमी की पीड़ा मं ईनकी इमानदार भागीदारी देखते ही बनती है।

बाद के काव्य संकलनं कोइ दूसरा नहं (सन् 1993), आन ददनं (सन् 2002) तथा हाहशये का गवाह (सन् 2009) मं

कुँवर नारायण बाज़ार और याहन्त्रकता से बदलते पररवेश मं हजस तरह संवेदना की हत्या हो रही है ईसका प्रहतपक्ष तैयार करते हं। वे ऄसहमहत के मानवीय ऄहधकार को जीहवत रखना चाहते हं और आसमं कहवता की बुएत बड़ी भूहमका देखते

हं। ईनके हलए कहवता मानवीयता का पयाषय है। कहव समय की गमष रेत पर परस्पर प्रेम और मानवीयता की धारा

प्रवाहहत करने के हलए प्रयत्नशील है।

आस तरह कुँवर नारायण का काव्य-कथ्य ईनके हवस्तृत काव्य फलक के बीच रूप ्र हण करता है। हनराशा के ऄन्धकार को

चीरता हठीला अशावाद और मानवीयता मं ऄखण्ड हवश् वास ईनकी कहवता का स्थायी स्वर है। आन सबके साथ प्रकृहत- प्रेम के हवहवध-वणी हबम्बं, आहतहास, स्मृहत और दशषन का ऄद्भुत सामन्जस्य ईनकी रचनाओं को हवलक्षणता प्रदान करते

हं। कहव जीवन के हवरोधी युग्ममं के बीच से ऄपनी समहन्वत–सन्तुहलत काव्य-दृहि ्र हण करता है। आसीहलए ईनके काव्य मं अशा-हनराशा, व्यहि-समहि, परम्परा-अधुहनकता, आहतहास-स्मृहत जैसे द्वन्द्वात्मक ऄहभधान एक साथ जगह पाते हं।

3. अशा-हनराशा

कुँवर नारायण की अरहम्भक कहवताओं मं हजस अधुहनक व्यहि का हचत्रण है वह अशा-हनराशा के द्वन्द्व मं हघरा ददखाइ पड़ता है। ईनके पहले काव्य-सं्र ह चक्रव्यूह मं एक ओर यदद जीवन-राग की कहवताएँ हं, हजनमं भावना का ज्वार है, ईद्दाम अवेग है, तो दूसरी ओर जीवन की हवषमताओं मं हघरे होने का एहसास भी है। एक चक्रव्यूह जैसी हस्थहत है, हजससे हनष्कासन की कोइ राह नहं लेदकन कुँवर नारायण की हवहशिता आस बात मं है दक वे हनराशा भरी हस्थहतयं का

हचत्रण तो ऄवश्य करते हं, लेदकन ईस हनराशा को ऄपने उपर हावी नहं होने देते। कहव स्वयं से ही प्रश् न करते हं–

कौन कब तक बन सकेगा कवच मेरा?

युद्ध मेरा, मुझे लड़ना

आस महाजीवन समर मं ऄन्त तक करट-बद्ध

हर व्यहि को ऄपने जीवन का युद्ध स्वयं ही लड़ना पड़ता है। ईसकी यह संकल्पशहि और जीवन के प्रहत एक अलोचनात्मक दृहि सम्बन्धं के ऐसे डोरे बुनती है दक कहव हनजता से सावषजहनकता की पररहध मं पुएँच जाता है। ईसका

सम्बन्ध व्यापक मानवता से जुड़ जाता है। यही हबन्दु ईसमं अशा का संचार करता है और वह कह ईठता है–

हवश् वास रक्खो।

मं तुम्हारे साथ हूँ।

ईस तम-हववश ईम्मीद मं

जो रोशनी को प्यार करती है।

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हवश् वास, ईम्मीद और अशा का यह स्वर अगे चलकर ईनकी कहवताओं

मं दूर तक सुनाइ पड़ता है। अत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने जैसी प्रबन्ध रचनाएँ हं या कोइ दूसरा नहं, आन ददनं, हाहशये का गवाह ; जैसी रचनाएँ, सब मं जीवन का कटु यथाथष ऄपनी बीभत्सता के बावजूद कहव को हनराशा के ऄन्धेरं

मं नहं धकेलता। कहव की हज़द्द है दक हज़न्दगी से लड़ाइ ईसके भीतर रहकर ही सम्भव है। मनुष्य मं कहव का ऄप्रहतम हवश् वास कभी खहण्डत नहं होता –

ईसकी हववशता और टपटाहट हजसे एक ऄन्तहीन मृत्यु ने

ऄपने सीने से हचपका रखा हो।

ईसकी लटकी ुएइ ाती, धँसा ुएअ पेट, झुके ुएए कंधे, वह कौन है हमेशा हजसकी हहम्मत नहं केवल घुटने तोड़े जा सके?

ईसके उँचे ईठे हसर पर एक बोझ रखा है

काँटं के मुकुट की तरह बस आतने ही से पहचानता हूँ

अज भी

ईस मनुष्य की जीत को।

कहव का दृढ़ हवश् वास है दक मनुष्य की हहम्मत नहं तोड़ी जा सकती आसीहलए वह ऄजेय है। कहव ईसकी आस ऄपराजेय शहि के सम्मुख नतमस्तक है।

4. प्रेम और प्रकृहत

कुँवर नारायण की कहवताएँ एक हवशेष सौन्दयाषनुभव से सृहजत हं। ईनमं प्रकृहत और प्रेम के कु ऄनूठे हबम्ब हं। ईनके

यहाँ कोइ भी भाव एकांगी नहं है। रूप, रस, गन्ध के हबम्ब एक मार्ममक सौन्दयष बोध से परस्पर ऄनुस्यूत हो गए हं।

यौवन और प्रेम की कहवताओं मं जीवन की ईमंग है। ईनमं एक ख़ास तरह की सन्यत ऐन्रीयता भी लहक्षत होती है। तुम नहं, चाह का अकाश, देह के फूल, प्यार और बेला के फूल अदद कहवताओं मं प्रणय और चाह की चटकीली ाया है।

ऐसी ऄहधकांश कहवताएँ एक हवशेष मनःहस्थहत से हनःसृत हं हजनमं भावना की तरलता लक पड़ती है–

तुमने देखा,

दक हँसती बहारं ने?

तुमने देखा,

दक लाखं हसतारं ने?

दक जैसे सुबह

धूप का एक सुनहरा बादल ा जाए, और ऄनायास

दुहनया की हर चीज़ भा जाए

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M26 : कुँवर नारायण का काव्य कथ्य

प्रेयसी के देखने भर से भावना का जो ज्वार ईमड़ता है, ईसे कहव प्रभाव की प्रगाढ़ता से सुन्दर ऄनुभव मं बदल देता है।

प्रेम, दुहनया की हर चीज़ को ऄहधक हप्रय बना देता है। ऄहधक महत्त्वपूणष कहवताओं मं भावना की तरलता के साथ दशषन का संश् लेषण भी है। ऄनेक कहवताओं मं कहव ने प्रेम को देह और वासना की कैऺद से मुि रखने का अ्र ह दकया है।

कहव की सौन्दयाषहभलाषी दृहि का दूसरा ठौर प्रकृहत है। कहव के हलए यह ऐसा हवषय है जहाँ ईनका मन रमता है। प्रकृहत के ऄनेक सहज-टटके हबम्ब ईनकी कहवताओं मं हबखरे पड़े हं। कहं हबल्कुल सादगी से कहव ने प्राकृहतक दृश्यं के फोटो- हचत्र खंच ददए हं–

एक ंटा प्यास, एक मुट्ठी अस,

ईमड़कर हमट्टी बनी अकास लू ऄनुकूल

हखलते गुलमोहर के फूल

लू मं गुलमोहर के फूल, ऄमलतास, दूर तक, सवेरे-सवेरे, कार्मनस पर अदद ऄनेक कहवताओं मं प्रकृहत की हचत्रात्मक ऄहभव्यहि ुएइ है। कमरे मं धूप, एक मूड, बहार अइ है जैसी कहवताएँ हखलन्दड़ वाक्-हचत्रं का प्रहतरूप हं जहाँ कहव शब्ददं मं प्रकृहत एवं मनुष्य के परस्पर खेल को प्रस्तुत करता है।

पहले दौर की कहवताओं मं प्रकृहत का यह रूपायन हमलता है जबदक बाद मं बढ़ते शहरीकरण और याहन्त्रकता से प्रकृहत को बचाने का हवचार मुख्य हो जाता है। प्रकृहत की सहजता कहव को हप्रय है। ईसके बरक्स अपाधापी से भरी अधुहनक जीवन शैली जो प्राकृहतक सन्तुलन को नि कर रही है, ईसके प्रहत लेखक गहरी हचन्ता जताते ुएए संकल्प करता है–

बचाना है-

नददयं को नाला हो जाने से

हवा को धुँअ हो जाने से

खाने को ज़हर हो जाने से

बचाना है- जंगल को मरुथल हो जाने से, बचाना है- मनुष्य को जंगल हो जाने से।

बदलते समय मं हम सबका दाहयत्व है दक ऄपनी नददयं, हवा, जंगल-ज़मीन को सुरहक्षत रखं और मनुष्य के जीवन को

उसर होने से बचाएँ।

5. व्यहि-समहि

कुँवर नारायण की कहवता पर यह सवाल बराबर ईठाया जाता है। दक ईनकी कहवताओं का केन्र व्यहि है या समाज।

अरहम्भक दौर की अत्म सजगता से भरी कहवताओं के अधार पर कुँवर नारायण को एक ऐसे कहव के रूप मं प्रहतहष्ठोत

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दकया गया, हजनकी कहवताओं पर ऄहस्तत्ववाद का गहरा प्रभाव है।

स्वतन्त्र ऄहस्मता की स्थापना, जीवन मं क्षण का महत्त्व, मोह का ह टकना और उब, घुटन, थकान-भरी हनराशा की

हमहश्रत ऄहभव्यहि को रेखांदकत करते ुएए ईनकी कहवता को एकाहन्तक व्यहिवाद की दृहि से पढ़ा गया। ईनके कथ्य एवं

भाषा पर भी पाश् चात्य प्रभावं को रेखांदकत दकया गया। कुँवर नारायण को आस दृहि से पढ़ना ग़लत होगा। वे ईन कहवयं

मं से हं हजन्हंने दकसी भी वाद मं बँधे हबना ऄनुभूत सत्य को ही ऄपना साक्षी माना।

ऄनुभूत सत्य कुँवर नारायण की रचनाशीलता का सबसे बड़ा साक्ष्य है। वे ऄपनी सभी रचनाओं मं जीवन के ऄनेक पक्षं

और ज्ञात सत्यं को स्वानुभव की कसौटी पर अँकना चाहते हं। कहं भी यह ऄनुभव हनजबद्धता का पयाषय नहं बनता।

कभी वह सृहि के हवराट मं स्वयं को तलाशता है, तो कभी प्रकृहत के हवस्तार मं स्वयं को समर्मपत ऄनुभव करता है। कुँवर नारायण की हचन्ता व्यहि के ईत्कषष को लेकर है। कहव की वैयहिक चेतना का प्रकाश-वृत्त पूरी मानवता को ऄपने भीतर समेटे ुएए है। ईनकी प्रहसद्ध कहवता एक ऄजीब-सी मुहश्कल आसका ऄच् ा ईदाहरण है-

एक ऄजीब-सी मुहश्कल मं हूँ आन ददनं- मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताक़त ददनं ददन क्षीण पड़ती जा रही

कहव ऄं्र ेज़ं से नफ़रत करना चाहता है, तो शेक्सहपयर अड़े अ जाते हं, मुसलमानं से तो ग़ाहलब चले अते हं, हसखं से

तो गुरु नानक ध्यान अने लगते हं। कम्बन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी सब कहवयं की स्मृहत ईनके यहाँ एक खूबसूरत एहसास की तरह दजष है। ये सब केवल दकसी एक धमष या जाहत तक सीहमत नहं, समूचा हवश् व आनका घर-अँगन है। मानवीय सद्भाव के हजन ईच् चादशं को ईन्हंने प्रहतहष्ठोत दकया कहव ईन मूल्यं से आतना प्रेम करते हं दक वह दकसी से भी नफ़रत नहं कर पाता। कुँवर नारायण के यहाँ समहि का ऄथष समूची मानवता है, हजसे देश-काल की सीमाओं मं रूढ़ नहं दकया

जा सकता।

6. सामाहजक प्रहतबद्धता

कुँवर नारायण की सामाहजक प्रहतबद्धता का स्वर दकसी हवचारधारा से सम्बद्ध न होकर मनुष्य मात्र के प्रहत ईनकी

संवेदनशीलता से हनःसृत है। ईनकी एक नहं ऄनेक कहवताएँ ऐसी हं, हजनमं राजनीहतक सचेतता, सामाहजक प्रहतबद्धता

और हर हाल मं अम अदमी के हक मं खड़े होने की ललक देखी जा सकती है। सातवं दशक की सामाहजक, अर्मथक, राजनीहतक पररहस्थहतयाँ अम अदमी के हलए हजस तरह की व्यूह रचना कर रही थं, कहव ईनका ऄनावरण करता है।

स्वाधीनता के बाद का मोहभंग, सामाहजक हवकास की दृहि का धुँधला जाना, अम अदमी की बेबसी-लाचारी और धीरे- धीरे अपातकाल की ओर बढ़ता सत्ता का केन्रीकरण-कहव ऄपने आस युग-यथाथष का साक्षी है। वे समाज की चेतस आकाइ की तरह समय की करवट को महसूस करता है। ऄपने-सामने, कोइ दूसरा नहं, आन ददनं, हाहशये का गवाह - सं्र हं मं

ऄनेक ऐसी कहवताएँ हं। सम्मेदीन की लड़ाइ आस दृहि से महत्त्वपूणष कहवता है। सम्मेदीन मात्र एक संज्ञा नहं, भ्रिाचार के हवरुद्ध जंग लड़ता भारतीय नागररक है जो लोकतन्त्र की ईम्मीद है। कहव ईसकी लड़ाइ को मात्र राजनीहतक पररदृश्य तक सीहमत नहं रखते। ईनके शब्ददं मं:

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ऄन्धेरं के हखलाफ़... ख़बर रहे

दकस दकस के हखलाफ़ लड़ते ुएए मारा गया हनहत्था सम्मेदीन बचाए रखना

ईस ईजाले को

हजसे ऄपने बाद

हज़न्दा ोड़ जाने के हलए जान पर खेल कर अज एक लड़ाइ लड़ रहा है

दकसी गाँव का कोइ ख़ब्दती सम्मेदीन

कहव एक सजग नागररक की भाँहत ईस महान लोकतन्त्र को बेनकाब करते हं, जहाँ शोषण की ऄहतशयता व्यहि के

मौहलक ऄहधकारं का हनन कर रही थी। कुँवर जी की कहवताओं मं भी भारतीय लोकतन्त्र के ईस ऄध्याय को पढ़ा जा

सकता है जहाँ हत्याएँ होती हं, बच् चे भूख से मरते हं। जनता बेकसूर होकर भी कटघरे मं खड़ी है। गरीबी, भूख और लाचारी ने अम अदमी को बेबस कर ददया है।

कहव की दृहि हसफ़ष ऄपने देश और समय तक सीहमत नहं है। दुहनया मं जहाँ कहं भी शोषण और ऄन्याय के ऄध्याय रचे

जा रहे हं, वह ईन पर प्रश् नहचन्ह लगाता है। हवयतनाम और काले लोग कहवताओं मं कुँवर नारायण ऄपनी संवेदना का

दायरा बड़ा कर लेते हं। हवयतनाम के हवस्थाहपतं की पीड़ा और रंग-भेद का दंश झेलते दुहनया के काले लोगं की अवाज़ ईनकी कलम की नंक से सुनाइ देती है-

सुना है वे भी आन्सान हं, मगर काले हं

हजन्हं कु गोरे जानवरं की तरह पाले हं।

ये कहवताएँ एक बार दफर हसद्ध करती हं दक कहव की हचन्ता मानव मात्र को लेकर है। ईनकी सहानुभूहत हर ईस मनुष्य के

साथ है हजसकी गररमा को सत्ताएँ चोट पुएँचाती हं। सन् 2009 मं प्रकाहशत काव्य-सं्र ह हाहशए का गवाह मं कुँवर नारायण एक कदम और अगे बढ़ाते हं। वतषमान की हवकरालता आस सं्र ह की कहवताओं मं भी भली-भाँहत ऄंदकत है–

बाज़ार की चकाचंध (बाज़ारं की तरफ), हवज्ञापन की सच ढँकने की कोहशश (काला और सफ़ेद), ऄपने खूँखार जबड़ं मं

अदमी को दबोचकर बैठा दैत्याकार शहर (शहर और अदमी), शहि का ईद्दण्ड प्रदशषन और अदमी की लाचारी (ऄगर आन्सान ही हूँ)। आन सभी कहवताओं मं हस्थहत का स्वीकार मात्र नहं है, कहव ऄपनी मानवीय दृहि से ईसका प्रहतपक्ष रचता है।

7. कहवता और मानवीयता

ऄन्धेरं के वचषस्व को ऄस्वीकार करती कुँवर नारायण की कहवता बुएत गहरी संवेदनशीलता से जीवनी-शहि प्राप्त करती

है। कहव के हलए कहवता और मानवीयता लगभग पयाषय हं। आसहलए यदद मनुष्य को बचाना है तो कहवता को बचाना

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होगा, भाषा को बचाना होगा। यकीनं की जल्दबाज़ी मं, कहवता

कहवता की ज़रूरत जैसी कहवताओं मं कहव, कहवता की पक्षधरता करता ददखाइ पड़ता है–

कहवता वक़्तव्य नहं गवाह है

× × ×

कोइ चाहे भी तो रोक नहं सकता

भाषा मं ईसका बयान

हजसका पूरा मतलब है सच् चाइ हजसकी पूरी कोहशश है बेहतर आनसान

कहव अ्र ह करते हं दक नारं और आहश्तहारं की दुहनया मं हम दकसी तरह ऄपने मन का एक कोना कहवता के हलए बचाए रखं क्यंदक जीवन मं वह बुएत कु दे सकती है। जीवन मं कोमलता की ओर लौटना, हस्थहतयं के हवपरीत होने

पर भी हवश् वास को खहण्डत होने से बचाए रखना और कहवता को सम्भावना की तरह तलाशना यह हनश् चय ही कहव की

ईपलहब्दध है।

अज हम एक ऐसे सिहस्र समय मं रह रहे हं जहाँ हर पल थोड़ी मनुष्यता मरती जाती है। बाज़ार का वचषस्व और बढ़ती

याहन्त्रकता व्यहि को खुदगज़ष और संवेदनहीन बना रहे हं। सिहसा और नफ़रत के आस दौर मं हमारे पास एकमात्र हवकल्प यही है दक हम प्यार से, नफ़रत को जीत जाएँ। आन ददनं सं्र ह मं आसी भाव की एक कहवता है जख़्म -

आन गहलयं से

बेदाग़ गुज़र जाता तो ऄच् ा था

और ऄगर

दाग़ ही लगना था तो दफर कपड़ं पर मासूम रि के ंटे नहं

अत्मा पर

दकसी बुएत बड़े प्यार का जख़्म होता

जो कभी न भरता

यह सदाशयता ही कुँवर नारायण की हवलक्षणता है। समय की बेचैनी, गहरी ईथल-पुथल, पररहस्थहतयं की प्रहतकूलता

का एहसास कहव को बखूबी है, दफर भी एक हज़द्द है, जो हार मानने नहं देती। ऐसा अत्महवश् वास है, जो मनुष्यता मं

ईनकी अस्था को हमटने नहं देता। शायद यही अने वाले युगं के हलए वह अलोक कण हो सके हजससे ददन रुपहले और ईजाले रह सकं।

8. आहतहास और स्मृहत

आहतहास और स्मृहत कुँवर नारायण के कहवत्व का ऄहभन् न हहस्सा हं। ‘लखनउ’ ‘श्रावस्ती’, ‘कुतुब मीनार’, ‘कोणाकष’,

‘फतेहपुर सीकरी’- ये सभी ईनके यहाँ ऄपने ऄलग रंग मं मौजूद हं। लखनउ, खत्म होती नवाबशाही और व्यथष की शहरी

भागमभाग ओढ़े ईनकी कहवताओं मं एक नए रूप मं दजष है, तो कुतुब मीनार की उँचाआयाँ हमारी नीचाआयं का एहसास

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M26 : कुँवर नारायण का काव्य कथ्य

कराती हं। कोणाकष का मोहक सौन्दयष स्तब्दध करता है, तो फतेहपुर

सीकरी ईदास। आन सब कहवताओं मं आहतहास के ये स्मृहत हचह्न कहव के मन पर कु नइ रंग-रेखाएँ ऄंदकत कर देते हं।

कहव, ऄतीत के गली-कूचं मं ग़ाहलब, मीर, कबीर, सूर, तुलसी की भी तलाश करते हं। आस सन्दभष मं ईनकी दो महत्त्वपूणष कहवताएँ हं – अजकल कबीरदास और ऄमीर खुसरो। कबीर और खुसरो ईस काव्य परम्परा के वाहक हं जो साझी

संस्कृहत को प्रहतहष्ठोत करते हं। कहव, कबीर का महत्त्व आस बात मं मानता है दक ‘ईनका हर शब्दद दृहि और दृहि-दोष मं

ज़रूरी भेद’ करता है। आस कहवता मं कुँवर नारायण कबीर के दशषन, समाज और भाषा के संकट को संकेहतत कर ऄपने

समय और ईनके समय की समान्तरता को पहचानने की कोहशश करते हं। वे ईनके दाय को ऄपने कहव मन के भीतर ऄर्मजत भी करते हं और ऄन्ततः कबीर की ईपहस्थहत ‘प्रेम’ के ईस भाव मं मानते हं जो ऄसीम और हवस्तृत है। ऄमीर खुसरो का अकलन करते ुएए कहव कला और सत्ता के अपसी सम्बन्धं के तनाव को रेखांदकत कर, कलाकार की स्वतन्त्र सत्ता की प्रहतष्ठोा करता है। आस कहवता का एक ऄंश रिव्य है-

खुसरो जानता है ऄपने ददल मं

ईस ददन भी सुल्तानी अतंक ही जीता था

ऄपनी महदफल मं।

भूल जाना मेरे बच् चे दक खुसरो दरबारी था।

वह एक ख्वाब था- जो कभी संगीत कभी कहवता

कभी भाषा

कभी दशषन से बनता था

वह एक नृशंस युग की सबसे जरटल पहेली था

हजसे सात बादशाहं ने बूझने की कोहशश की।

सच् ची कहवता और कला का चररत्र चाटुकाररता से हभन् न होता है। वह सत्ता के अतंक के हवरुद्ध मानवीय प्रहतपक्ष की

पहल है। कुँवर नारायण आसी पहल की परम्परा मं एक नया ऄध्याय जोड़ते हं।

9. परम्परा और अधुहनकता

कुँवर नारायण वतषमान के हबन्दु से जब ऄतीत को देखते हं तो कहव की दृहि जीवन के ईस हचरन्तन सत्य का ऄन्वेषण करती है जो कालातीत है। पारम्पररक और अधुहनक का समहन्वत स्वर ईनके दो महत्त्वपूणष अख्यान काव्यं मं प्रस्तुत ुएअ है जो ऄपने समय से अगे बढ़कर, अने वाले युगं तक ऄपनी साथषकता हसद्ध करते हं। ये काव्य हं – अत्मजयी तथा

वाजश्रवा के बहाने।

अत्मजयी मं कठोपहनषद् के नहचकेता प्रसंग को अधार बनाया गया है। यहाँ कथा मात्र माध्यम है नहचकेता ईस अधुहनक हववेकशील मानस का प्रहतहनहध है, हजसे ऄपनी हजज्ञासाओं, संशयं और हवरोह की पीड़ा का सलीब स्वयं ही ईठाना

पड़ता है। अत्मजयी का नहचकेता, वह हचन्तनशील प्राणी है जो प्रदत्त-पररहस्थहतयं को स्वीकार कर ईनसे सन्तुि नहं

होता। ईसकी हजज्ञासाएँ ईसे व्याकुल करती हं वह बार-बार ऄपने होने को पररभाहषत करना चाहता है। ईसके सचेतन व

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ऄवचेतन मं बसे सभी प्रश् न वहाँ मुखर हो ईठते हं। मृत्यु का रहस्य प्राप्त

कर जब वह पुनः जीवन की ओर लौटता है तो ईसमं एक नइ जीवन दृहि का ईदय हो चुका है, जो ऄहनवायषतः पुरातन के

हनषेध से हनर्ममत नहं है। मूल्य संक्रमण के घात-प्रहतघात को झेलते ुएए वह ऄन्ततः हजस सत्य की प्राहप्त करता है, ईसमं

नइ अस्था एवं नइ अशा का संचार है।

नहचकेता को ईन जीवन मूल्यं की तलाश है हजनका ऄहस्तत्व स्वयं जीवन से भी बड़ा है। वह ऄपनी परम्परा और आहतहास को एक नवीन दृहि-बोध से ऄपनाने को प्रस्तुत है तभी वह अत्मजयी बनता है। रचना मं नहचकेता और ईसके

हपता वाजश्रवा की ऄसहमहत नइ और पुरानी पीढ़ी के संघषष का प्रतीक है लेदकन यह संघषष दो पीदढ़यं का सतही संघषष नहं है। कहव ने आसे वैददक वस्तुवाद और औपहनषददक ऄध्यात्मवाद के बीच संघषष का प्रतीक माना है। वाजश्रवा ईस वस्तुवादी दृहि का प्रहतहनहध है जो प्रकृहत पर ऄहधकार चाहती है। नहचकेता ईस अध्याहत्मक दृहि का पोषक है जो

अन्तररक संयमन के हबना भौहतक प्रगहत को खतरनाक मानता है।

अत्मजयी के प्रकाशन के लगभग पचास बरस बाद कुँवर नारायण का दूसरा खण्डकाव्य वाजश्रवा के बहाने प्रकाहशत

ुएअ। यह रचना अत्मजयी से सम्बहन्धत भी है और स्वतन्त्र भी। यहाँ भी कथा का अधार नहचकेता और वाजश्रवा ही हं।

आस रचना मं अत्मजयी की मूल समस्या को एक हभन् न दृहिकोण से देखा गया है। कहव ने स्वयं हलखा-

“अत्मजयी मं यदद मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है तो वाजश्रवा के बहाने मं जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की

एक कोहशश है। आस देखने (पश्य) का हवशेष महत्त्व है। ऄन्ततः दोनं एक से ही हनष्कषष हबन्दु पर पुएँचते-से लगते हं, जहाँ

जीवन को लाँघकर, खुले अकाश-मागष से, पुएँचा जा सकता है, वहं शायद जीवन को जीते ुएए थल-मागष से भी।”

(वाजश्रवा के बहाने- कुँवर नारायण, भूहमका)

जीवन और मृत्यु की वास्तहवकता की पड़ताल, पीदढ़यं का संघषष, प्रकृहत का दोहन अदद कहव की ऐसी हचन्ताएँ हं हजन्हं

वे नहचकेता और वाजश्रवा के बहाने टटोल रहे हं। जीवन मं ऄनेक हस्थहतयं की द्वन्द्वात्मकता को सचेत भाव से हवश् लेहषत करता है और पाता है दक ऄहतवाद मं समन्वय सम्भव नहं। ऄहत-भौहतक और ऄहत-अहत्मक के बीच समझौता हो ही नहं

सकता। आस ऄहतवाद मं ही सिहसा की जड़ं पनपती हं। वह समन्वय और सुलह के रास्ते तलाशना चाहता है। यह कृहत आसी

सददच् ा का पररणाम है। कहव जैसी जीवन दृहि ऄर्मजत करता है, ईसकी ऄहभव्यहि आन पंहियं मं ुएइ है- कु आस तरह भी पढ़ी जा सकती है

एक जीवन-दृहि-

दक ईसमं हवनम्र ऄहभलाषाएँ हो

बबषर महत्वाकांक्षाएँ नहं, वाणी मं कहवत्व हो

ककषश तकष-हवतकष का घमासान नहं, कल्पना मं आन्रधनुषं के रंग हो, इष्याष द्वेष के बदरंग हादसे नहं, हनकट सम्बन्धं के माध्यम से

बोलता हो पास-पड़ोस,

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और एक सुभाहषत, एक श्लोक की तरह सुगरठत और ऄकाट्ड हो जीवन-हववेक।

वाजश्रवा के बहाने की रचना से कुँवर नारायण हचन्तन का एक वृत्त पूरा करते हं। अत्मजयी से स्वतन्त्र होते ुएए भी

यह रचना ईस खण्डकाव्य मं ईठे कु महत्त्वपूणष प्रश् नं का ईत्तर ढूँढती है। कहव के रचना क्रम मं आस कृहत का हवशेष महत्त्व है। कुँवर नारायण का समस्त रचना-कमष जीवन-हववेक की तलाश है।

10. हनष्कषष

कुँवर नारायण की काव्य-रचनाओं से गुज़रकर हम ईन्हं ऐसे कहव के रूप मं पहचान पाते हं हजनका काव्य फलक ऄत्यन्त हवस्तृत है। हवषय दक हवहवधता के साथ-साथ वह समय के लम्बे ऄन्तराल मं फैला ुएअ है। कहव की मुख्य हचन्ता व्यहि- ऄहस्मता को लेकर है लेदकन यह ऄहस्मता गहरे सामाहजक बोध से अबद्ध है। देश-काल दक सीमाओं को तोड़कर ईनकी

दृहि मानव मात्र पर रटकी है। आहतहास-स्मृहत, ऄतीत-वतषमान, हमथकीय चेतना और अधुहनकता के समन्वय से ही कहव ऄहडग अस्था को प्राप्त करता है जो प्रहतकूल पररहस्थहतयं मं भी जीवन की सकारात्मकता को बचाए रखती है।

References