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HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

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HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

हवषय हहन्दी

प्रश् नपर सं. एवं शीषषक P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र आकाइ सं. एवं शीषषक M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

प्रधान हनरीक्षक HND_P14_M11

आकाइ टैग प्रो. रामबक्ष जाट प्रश् नपर-संयोजक प्रो. ऄरुण होता

आकाइ-लेखक प्रो. रहव श्रीवास्‍ततव आकाइ-समीक्षक प्रो. एस.सी. कुमार भाषा-सम्पादक प्रो. देवशंकर नवीन

पाठ का प्रारूप 1. पाठ का ईद्देश्य 2. प्रस्‍ततावना

3. कला क्या है? : कला और सहजानुभूहत का सम्बन्ध 4. सौन्दयषशास्‍त र और अदशषवादी दशषन

5. सहाजानुभूहत और ऄहभव्यंजना

6.

सौन्दयष : रूप और ऄन्तवषस्‍ततु का सम्बन्ध 7. हनष्कषष

1. पाठ का ईद्देश्य

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HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

आस पाठ के ऄध्ययन के ईपरान्त अप –

 क्रोचे की दृहि मं कला सम्बन्धी हवचार समझ पाएँगे।

 कला और सहजानुभूहत का सम्बन्ध जान पाएँगे।

 सहजानुभूहत और ऄहभव्यंजना का सम्बन्ध जान पाएँगे।

 रूप और ऄन्तवषस्‍ततु का सम्बन्ध समझ सकंगे।

2.

प्रस्‍ततावना

सन् 1901 मं आटली के दाशषहनक सीहनयॉर बेनेडेटो क्रोचे ने आस्‍तथेटटका शीषषक से सौन्दयषशास्‍त र की एक पुस्‍ततक हलखी।

बारह वषं बाद आटली की राआस संस्‍तथा द्वारा सौन्दयषशास्‍त र पर अयोहजत गोष्ठी के मं ईन्हंने चार व्याख्यान ककए।

व्याख्यान का शीषषक था - कला क्या है?, कला-हवषयक भ्रान्त धारणाएँ ऄन्तरात्मा और मानव समाज मं कला का स्‍तथान तथा समालोचना और कला का आहतहास। हवचार औऱ प्रगहत के मानदण्ड से क्रोचे की स्‍तथापनाएँ ऄब बहुत पुरानी पड़

चुकी हं और बहुत हद तक हनरथषक भी। ककन्तु तथ्य है कक सौन्दयषशास्‍त र के आहतहास मं क्रोचे का हस्‍ततक्षेप ऐसी घटना है

हजसने सौन्दयष मीमांसा को दाशषहनक अधार कदया और लम्बे समय तक परवती हवचारकं के मन मं आस भ्रम को हजलाए रखा कक कला और साहहत्य एक पूणषतः स्‍तवतन्र एवं स्‍तवाय दुहनया होती है जो न केवल ऄन्य भौहतक प्रपञ्चों से हभन् न होती है बहककईसका हनषेधक भी होती है। अज ईस हवचार को ‘कला कला के हलए’ ऄथवा ‘ऄहभव्यंजनावाद’ के नाम से

जाना जाता है। ईसकी जबदषस्‍तत प्रभावशीलता को तो अचायष शुक्ल ने स्‍तवीकारा पर क्रोचे की मान्यताओं का तार्ककक हवश् लेषण करते हुए ऄपने लम्बे हनबन्ध काव्य मं ऄहभव्यंजनावाद मं ईन्हं प्रायः हिन् नमूल कर कदया। ककन्तु क्रोचे ने हजस कलावाद को जन्म कदया ईसके जीवाणु अज भी हभन् न रंग-रोगन और ऄलग-ऄलग वेषभूषा मं ई र-औपहनवेहशक साहहत्य-सैद्धाहन्तकी-शैली हवज्ञान रूपवाद संरचनावाद ई र संरचनावाद एवं कुि हद तक देटरदा के हवखण्डनवाद मं

भी मौजूद है। ऄब ईसके ढंग और ढब बदल गए हं।

एक हसद्धान्त के रूप मं कला कला के हलए ऄथवा ऄहभव्यंजनावाद ने एक लम्बे समय तक साहहत्य-हचन्तकं को ऄपने

प्रभाव मं रखा। आसहलए क्रोचे के हसद्धान्तं-स्‍तथापनाओं को सबसे पहले ईन्हं के शब्ददं मं पढ़ें और समझं।

3. कला क्या है? : कला और सहजानुभूहत का सम्बन्ध

सन् 1901 की आस्‍तथेटटका मं क्रोचे ने कला ने कला को ‘सहजानुभूहत’ कहा। बारह साल बाद ईन्हंने सहजानुभूहत को

‘गीतात्मक’ कहा, ऄथाषत गीतात्मक सहजानुभूहत। राआस वाले भाषण मं ईन्हंने ‘कला क्या है?’ वाले प्रसंग मं कहा “कला

सम्प्रतीहत (हवजन) ऄथवा सहजानुभूहत है। कलाकार एक हबम्ब ऄथवा िायामास का सृजन करता है। जो कोइ कला का

रसास्‍तवादन करता है वह कलाकार की ही व्यंजना पर ऄपना ध्यान केहन्ित करता है और कलाकार द्वारा खोले हुए वातायण से झाँकता है और ऄपने ऄन्तर मं ईस हबम्ब की प्रहत सृहि करता है।” (सौन्दयषशास्‍त र के मूल तत्त्व राआस संस्‍तथान के व्याख्यानं का हहन्दी ऄनुवाद ऄनुवादक – श्रीकांत खरे ककताब महल आलाहाबाद 1967 पृ. 8)

क्रोचे के यहाँ ‘सहजानुभूहत’ एक हनषेधात्मक ऄवधारणा है जो ईसे ‘ऄन्यं’ से ऄलग करती है। ईसके ऄनुसार - “सबसे

पहले तो यह (सहजानुभूहत) आस बात का खण्डन करता है कक कला एक भौहतक वस्‍ततु है। ईदाहरण के हलए कुि हनहश् चत रंग या रंगं के अपसी सम्बन्ध; कुि अकृहतयं के सुहनहश् चत रूप; कुि हनहश् चत स्‍तवर या स्‍तवर सम्बन्ध; उष्मा या हवद्युत

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के गोचर तत्त्व-सारांश मं हजस ककसी चीज को ‘भौहतक’ कहा जा सके।

कला के भौहतकीकरण की यह भ्राहन्तपूणष प्रवृह साधारण हवचार-हवमशष मं पहले से ही हवद्यमान है। और जैसे बच्चे िूते तो

साबुन की फेन है पर कामना करते हं आन्िधनुष पकड़ने की वैसे ही सुन्दर वस्‍ततुओं की सराहना करने वाली मानव अत्मा

स्‍तवतः ईन (वस्‍ततुओं) के कारणं का बा्य जगत मं पता लगाने के हलए ईतावली रहती है।

...और ऄगर यह पूिा जाए कक कला एक भौहतक वस्‍ततु क्यं नहं हो सकती? तो हमं जवाब देना होगा कक पहले तो

भौहतक वस्‍ततुएँ सत्यरूप नहं होती। पर ऐसी कला परम सत्य-रूप होती है हजसके हलए बहुत सारे लोग ऄपना पूरा जीवन ऄर्पपत कर देते हं और जो सबमं एक ऄलौककक अनन्द भर देती है। ऄतएव आसका तादात्म्य एक भौहतक वस्‍ततु से नहं हो

सकता जो सवषथा ऄसत्य रूप होती है (ईपयुषक् त पृ. 9-10)।”

ईक् त ईद्धरण से सहज ही हनष्कषष हनकलता है कक कला के स्‍तवरूप और सृजन कमष मं ईसके भौहतक पटरवेश का हनषेध होता है क्यंकक सहजानुभूहत के रूप मं गृहीत कला ऄपने से बाहर वाले भौहतक पटरवेश का ऄहस्‍ततत्व नहं मानती।

भौहतक पटरवेश तो मनुष्य के प्रत्ययमूलक ज्ञान ऄथवा हनश् चयाहत्मका बुहद्ध का व्यापार है। क्रोचे ऄन्य अदशषवाकदयं की

तरह बा्य जगत की वस्‍ततुओं को चेतना-मानहसक रूपं का प्रहतहबम्ब ऄथवा िाया-घर मानते हं। आसहलए क्रोचे के यहाँ

कला मं ऄहभव्यंजना का जो व्यापार घटटत होता है वह बा्य और ऄन्तरप्रकृहत दोनं से परे हवशुद्ध अत्मावान सचेतना

की कक्रया है जीवन-जगत से पूणषतः हनरपेक्ष।

क्रोचे हलखते है “यकद कला सहजानुभूहत है और सहजानुभूहत ‘भावन’ (कण्टेम््लेसन) के मौहलक ऄथष हसद्धान्त की पयाषय है तो कला एक ‘ईपयोगी’ व्यापार नहं हो सकती। चूँकक हर ईपयोगी व्यापार का लक्ष्य सदैव सुख की प्राहि और दुःख से

हनवृह होता है आसहलए सच्ची कला का ‘ईपयोहगता’ ‘सुख’ ‘दुःख’ अकद से कोइ सम्बन्ध नहं। वास्‍ततव मं हबना ऄहधक झंझट के यह सवषथा मान्य होना चाहहए।” (ईपरोक् त पृ.11) गरज कक क्रोचे की दृहि मं कलानुभूहत एवं जीवनुभूहत मं कोइ सम्बन्ध नहं होता। सहजानुभूहत की हनषेधात्मकता का दूसरा पक्ष है।

‘कला सहजानुभूहत है’ आस पटरभाषा से हजस तीसरे हनषेध की व्यंजना होती है वह यह कक कला नैहतक व्यापार नहं है।

वह एक ऐसा व्यापार है जो ईच् चतर मानहसक क्षेर से सम्बहन्धत होता है। क्रोचे हलखते हं ‘सहजानुभूहत एक ऄमू ष या

काकपहनक व्यापार होने के कारण सभी प्रकार के व्यावहाटरक व्यापारं के हवरुद्ध होती है। कला संककपजन्य नहं होती

यानी ‘ऐन एक्ट ऑफ हवल।’ सत्संककप नीहतपरक व्यहि का ऄहवहच्िन् न गुण है कलाकार का नहं। चूँकक कला ककसी

संककप (या आच्िा कह लं) की ईपज नहं होती आसहलए आस पर नैहतक ईहापोह लागू नहं होते।... एक कलात्मक हचर नैहतक दृहि से श् लाघ्य या हेय कायष को प्रस्‍ततुत करता है; पर वह हचर हचर के रूप मं न तो नैहतक दृहि से श् लाघ्य होता है

न हेय ही। एक हचर को जेल भेजने या मृत्युदण्ड देने के हलए कोइ व्यवस्‍तथा नहं (ईपयुषक् त पृ. 13-14)।” यानी कला मं

नैहतकता शैहक्षक प्रयोजनशीलता जीवनादशं पर प्रहतबन्ध अकद लागू नहं है।

आस सन्दभष मं सबसे महत्त्वपूणष है क्रोचे द्वारा ककया गया कला-सम्बन्धी ज्ञान और तकष-सम्बन्धी ज्ञान का हद्वहवभाजन। क्रोचे

बताते हं कक ज्ञान के दो रूप हं – एक तो सहज है और दूसरा तकष-शहि द्वारा प्रा् त। ऄथाषत सहजानुभूत ज्ञान और प्रज्ञामूलक ऄवधारणात्मक ज्ञान। गमष वस्‍ततु को िूने से जलन होती है सहजानुभूत ज्ञान है। ऄधीनस्‍तथ वगं का शोषण ऄवधारणात्मक ज्ञान है। पहले का सम्बन्ध ककपना प्रसूत ज्ञान से है जो हचर काव्य संगीत नृत्य प्रेरणा ईच््वास

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शब्दद कोमलता अकद से हमलता है। ईसे हम मनोभावं के रूप मं ग्रहण

करते हं। तकष ज्ञान का सम्बन्ध वैयहिक ऄथवा सावषहरक (समहिगत) ज्ञान हवहशि वस्‍ततुओं का ज्ञान ऄथवा ईनके परस्‍तपर सम्बन्धं का ज्ञान हजसे हम दाशषहनक सूर वचनं ऄथवा हवककपात्मक बुहद्ध द्वारा प्रा् त करते हं। महस्‍ततष्क तथा सहज ज्ञान; ऄथवा तकष तथा ककपना; ज्ञान के दो मूल स्त्रोत हं। ये स्त्रोत हभन् न ही नहं हं हवरोधी भी हं। परस्‍तपर शरुता की हद तक। सभी ज्ञान ऄहभव्यंजना है ककन्तु सभी ऄहभव्यंजना कला नहं है।

क्रोचे ने आनकी परस्‍तपर हभन् नता और शरु-भाव के हवषय मं हलखा “सहजानुभूहत-कला प्रत्ययमूलक ज्ञान का खण्डन है।

ऄपने सच्चे ऄथाषत दाशषहनक रूप मं प्रत्ययमूलक ज्ञान (कंसे्चुऄल नॉलेज) हनत्य यथाथषवादी होता है। आसका ध्येय या तो

ऄसत्य के हवरुद्ध सत्य की स्‍तथापना करना होता है या ईस (सत्य) के ऄन्तगषत हनहवि करके और ईसी का एक ईपाहश्रत ऄंग मानकर ऄसत्य का ऄपक्षय करना। पर सहजानुभूहत का ऄथष है ककसी हचर का हचर-रूप मं ग्रहण हचर की हनतान्त अदशषमयता (जो हचरकार-मन मं पहले से अदशष-रूप मं प्रहतहष्ठत होता है) आस मूलभूत स्‍तवरूप (कला) का स्‍तवतन्र ऄहस्‍ततत्व है। आस ज्ञान की ईपमा काकपहनक जीवन के स्‍तव् न (हनिा नहं स्‍तव् न) से दी जाती है और दशषन की ईसके जागरण से। ऄतः सहजानुभूत्यात्मक और प्रत्ययमूलक ऄथवा बुहद्धपरक ज्ञान परस्‍तपर हवरोधी हं।... अदशषमयता (वह गुण जो

सहजानुभूहत को प्रत्यय से कला को सामान्य प्रत्यय का प्रहतपादन करने वाले दशषन और घटना-हववरण वाले आहतहास से

ऄलग करती है) कला की ऄपनी हवशेषता है। ज्ययंही ईस अदशषमयता से हचन्तन और हनधाषरण का हवकास होता है त्यंही

कला हिन् न-हभन् न होकर मर जाती है... (दरऄसल) कला मं ईस हचन्तन का ऄभाव है जो पुराण के हलए ऄहनवायष है।

कला मं ईस अस्‍तथा का ऄभाव है जो हचन्तन-तत्त्व से ईत्पन् न होती है। कलाकार ऄपने हचर मं न तो हवश् वास करता है और न ऄहवश् वास वह ईसका सृजन करता है।” (ईपयुषक् त पृ.17-18-19)

आस अदशषमयता का रहस्‍तय क्या है हजससे टूट कर कला हवपथगा हो जाती है? ईसे समझना चाहहए।

4. सौन्दयषशास्‍त र और अदशषवादी दशषन

क्रोचे का ऄखण्ड हवश् वास है कक कलाकार के मानस मं ऄनेक रूपेण प्रभाव हवचरण ककया करते हं और कलाकार सहज ज्ञान द्वारा मानहसक क्षेर के ऄन्दर ईसका कलात्मक अनन्द ईठाया करते हं। ईनका यह भी हवश् वास है कक वह कला जो

नीहत सुख या दशषन पर हनभषर करती है वह नीहत सुख या दशषन ही है कला नहं। सहजानुभूहत के रूप मं कला भौहतक जगत और व्यावहाटरक नैहतक और प्रत्ययमूलक व्यापारं से हभन् न है क्यंकक वास्‍ततव मं ईनका ऄहस्‍ततत्व होता ही नहं है।

आसहलए ‘नग्न ऄहभव्यंजना का सम्बन्ध हवचार और दशषन (तकष-हवतकष) से है और ऄलंकृत ऄहभव्यंजना का काव्य और ककपना से।’ (ईपयुषक् त पृ.50)

क्रोचे का हवचार है कक सत्य तथा यथाथष का केवल एक ही केन्ि है और वह है मानव महस्‍ततष्क। जो हवचारक यह समझते

हं कक सत्य और यथाथष-मनुष्य का ऄन्तबाष्य जीवन-दो रूप हं गलती करते हं। केवल महस्‍ततष्क मं ही दोनं हनहहत रहते हं।

बा्य संसार मं ईनका कोइ स्‍तथान नहं है। दूसरे शब्ददं मं जो भी हमारे मन मं प्रहतहष्ठत है वही सत्य तथा यथाथष है और जो भी बा्य रूप मं हमारे सम्मुख हस्‍तथत हं वह सत्य और यथाथष से कहं दूर है। जो कुि भी बा्य -रूप हम देखते हं ईसे

मानव-मन ने स्‍तवतः ऄपनी सहूहलयत के हलए हनर्पमत कर हलया है क्यंकक आसके द्वारा वह असानी से ऄपना कायष- सम्पादन कर लेता है।

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HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

दरऄसल क्रोचे की सहजानुभूहत मं हनहहत दाशषहनकता पुराने ्लेटोवाद का नया भाष्य है। ्लेटो की तरह क्रोचे भी

स्‍तवीकार करते हं कक “जब यह हवश् वास ककया जाता था कक ज्ञान द्वारा ऄपनी-ऄपनी अत्मा को इश् वर तक अदशष तक हवचारं के संसार तक प्रत्यक्ष मानवीय संसार से उपर हनरपेक्ष तत्त्व तक ईठाया जा सकता है; और यह स्‍तवाभाहवक ही

था ईस हवचार-तत्त्व का सामना ईस सत्य से हो गया जो सत्य नहं रहा।” (ईपयुषक् त पृ. 72) आसहलए ‘वे युग कहवता के

हवकास के हलए ईवषर नहं होते हजनमं गहणत और भौहतकशास्‍त रं का बोलबाला होता है।” (ईपयुषक् त पृ. 20) अदशषमयता ही वास्‍ततहवक सत्य है।’ (ईपरोक् त पृ. 82) आसमं भ्राहन्त हो सकती है। क्रोचे जोर देकर कहते है कक ‘भ्राहन्त कभी हवशुद्ध नहं होती। और ऄगर हवशुद्ध हो तो वह सत्य हो जाएगी।’ (ईपयुषक् त पृ. 20) ऄथाषत सत्य हवशुद्ध भ्रम होता

है दुहनया भर के अदशषवादी दाशषहनक आस पर एकमत हं। वे भौहतकवाद को कला का परम शरु मानते हं।

अचायष रामचन्ि शुक्ल ने सन् 1935 मं हहन्दी साहहत्य सम्मेलन के चौबीसवं ऄहधवेशन मं साहहत्य पटरषद् के सभापहत पद से एक व्याख्यान कदया था जो बाद मं काव्य मं ऄहभव्यंजनावाद शीषषक से प्रकाहशत हुअ। ईन्हंने ऄपने व्याख्यान मं

क्रोचे के सौन्दयष-हचन्तन का ममष समझाया है। सहजानुभूहत की कलात्मक ऄहभव्यंजना के हलए क्रोचे ने कला-सम्बन्धी ज्ञान को स्‍तवयंप्रकाश ज्ञान बताकर प्रत्यक्षमूलक ज्ञान से ईसे ऄलग ककया था। अचायष शुक्ल ने समझाया कक “स्‍तवयंप्रकाश ज्ञान का ऄहभप्राय है मन मं अप से अप हबना बुहद्ध की कक्रया या सोच-हवचार के ईठी हुइ मू ष भावना हजसकी

वास्‍ततहवकता-ऄवास्‍ततहवकता का कोइ सवाल नहं।” (‘सूक्ष्म रूप मं सहजानुभूहत का ऄथष है सत्यासत्य का ऄभेद’ क्रोचे

ईपयुषक् त पृ. 17) यह मू ष भावना या ककपना अत्मा की ऄपनी कक्रया है जो दृश्य जगत के नाना रूपं और व्यापारं को

(मन मं संहचत ईनकी िापं या संस्‍तकारं को) िव्य या ईपादान की तरह लेकर हुअ करती है। दृश्य जगत के नाना रूप- व्यापार है िव्य। आसी िव्य के सहारे अत्मा की कक्रया मू ष रूप मं ऄपना प्रकाश करती है।... मनुष्य की अत्मा िव्य की

प्रतीहत मार करती है ईसकी सृहि नहं करती। अत्मा की ऄपनी स्‍तवतन्र कक्रया है ककपना जो रूप का सूक्ष्म साँचा खड़ा

करती है और ईस साँचे मं स्‍तथूल िव्य को ढालकर ऄपनी कृहत को गोचर या व्यक् त करती है। यह साँचा अत्मा की कृहत या

अध्याहत्मक वस्‍ततु होने के कारण परमाथषतः एकारस और हस्‍तथर होता है। ईसकी ऄहभव्यंजना मं जो बहुलता कदखाइ पड़ती

है वह स्‍तथूल ‘िव्य’ के कारण; और वह पटरवतषनशील होता है। कला के क्षेर मं यही ‘साँचा’ (Form) सब कुि है; ‘िव्य’ या

सामग्री ध्यान देने की वस्‍ततु नहं।

“स्‍तवयंप्रकाश ज्ञान का साँचे मं ढलकर व्यक् त होना ही ककपना है और ककपना ही मूल ऄहभव्यंजना है जो भीतर होती है

और शब्दद रंग अकद द्वारा बाहर प्रकाहशत की जाती है।” (मुिक पं. जानकी शरण हरपाठी सूयष प्रेस काशी 1935 पृ.

20-21) क्रोचे ने कलात्मक सहजानुभूहत और ऄहभव्यहि-ऄहभव्यंजना के बीच के को स्‍त पष् ट ककया है।

5. सहाजानुभूहत और ऄहभव्यंजना

क्रोचे का तकष है कक ऄहभव्यंजना हसफष रूप की होती है। कला-सृजन मं रूप-हनमाषण मं ऄहभव्यंजना की स्‍तवाभाहवक क्षमता

होती है। रेखा रंग ध्वहन हचर संगीत वाहममता अकद द्वारा ऄहभव्यंजना-कक्रया पूरी होती है क्यंकक सहजानुभूहत ऄहभव्यंजना के रूपं के साथ जन्म लेती है। मसलन रेखागहणत या ऄंकगहणत की सहजानुभूहत हमं तब तक नहं हो

सकती जब तक कक ईसका कोइ ऐसा रूप न हो हजसे कागज पर ईतारा न जा सके। भावं के रूपाकृहत मं ढलने के क्षणं मं

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ही व्यहि को रूप के अन्तटरक प्रकाश का ऄनुभव होता है। यह अन्तटरक प्रकाश प्राहतभ ज्ञान या ‘आण्यूशन’ है जो ऄकस्‍तमात ईकदत होकर प्रकट होता है।

क्रोचे का पुनः तकष है कक यकद स्‍तवयं प्रकाश ज्ञान प्राहतभ ज्ञान का सचमुच ईदय हुअ है भीतर ईसकी ऄहभव्यंजना हुइ है

तो वह बाहर प्रकाहशत हुए हबना नहं रह सकती। जो भावना या ककपना व्यक् त नहं हुअ ईसका पूणष पटरपाक नहं हुइ।

ऄतः क्रोचे आस तकष को नहं मानते कक कहव के मन मं बहुत सारी भावनाएँ थं हजन्हं वह ऄच्िी तरह व्यक् त नहं कर सका।

सहजानुभूहत और ऄहभव्यंजना ऄभेद हं। आसी अधार पर वह साहहत्य-हवधाओं के वगीकरण को हनरथषक मानते हं। “वे

कला की हसहद्ध मं कोइ योग न देकर केवल तकष या शास्‍त र पक्ष मं सहायक होते हं। आन सबका मूकय केवल वैज्ञाहनक समीक्षा मं है कला हनरूहपणी समीक्षा मं नहं।” (रामचन्ि शुक्ल ईपयुषक् त पृ. 22-23) आसी तकष से वह मुक् तक सुखाहन्तकी-दुःखाहन्तकी रोमांस महाकाव्य ग्राम्यगीत हास्‍तय हचरकला संगीत कला हशकप कला नाटक अकद के रूप मं ककए गए हवभेदं को खाटरज करते हं। ईनका दृढ़े हवश् वास है कक “कला के हवहशि रूपं मं हवभेद ककया जा सकता

ईनमं से प्रत्येक को ऄपने हवहशि प्रत्यय और ऄपनी हवहशि सीमाओं मं हनधाषटरत ककया जा सकता है; भ्राहन्तपूणष हसद्धान्त है।” (सौन्दयषशास्‍त र के मूल तत्त्व पूवोक् त पृ. 53)

ऐसा क्रोचे को दो कारणं से प्रतीत होता है। एक तो ‘हवभेदं और कलाओं के बीच न्यायसंगत सीमा-रेखा खंचना ऄसम्भव हो जाता है – (तथा) ईनकी सभी पटरभाषाओं की जब सूक्ष्म रूप से परीक्षा की जाती है तो वे या तो कला की व्यापक पटरभाषा मं हवलीन हो जाती है या तकष के कठोर स्‍ततर पर आन हवभेदं और हनयमं को ईठा कदया जाता है (जो

प्रत्ययमूलकता कला का प्राण ही नहं है)।’ (ईपयुषक् त पृ.56) दूसरा कक हवभेद के पटरणामस्‍तवरूप ‘कला के हलए सुहनहश् चत क्षेर हनयुक् त हो जाने पर कौन-सा ‘हवभेद’ और कौन-सी कला ईच् चतर है।’ (ईपयुषक् त) का प्रश् न खड़ा हो जाता

है।

आसका समाहार क्रोचे ने यह कहकर ककया कक “कला सहजानुभूहत या गीतात्मक सहाजनुभूहत है आस धारणा का ही पक्ष है; और चूँकक एक कलाकृह एक मनःहस्‍तथहत को ऄहभव्यंहजत करती है और वह मनःहस्‍तथहत सदैव व्यहिगत और नवीन होती है; ऄतएव ‘सहजानुभूहत’ से ऄनन्त सहजानुभूहतयाँ ईपलहक्षत होती हं हजन्हं ‘हवभेदं’ के कठघरे मं तब कर बन्द नहं ककया जा सकता जब तक ईसमं ऄनन्त कठघरे न हं और आस प्रकार ‘हवभेदं’ के नहं ऄहपतु सहजानुभूहतयं के

कठघरे (ईपयुषक् त पृ. 57)।” चूँकक कला की गुणव ा ईसके ऄलंकाराकद बा्य ईपकरणं से तय नहं होती अत्मा पर ईसके

पड़ने वाले प्रभाव से तय होती है आसहलए ऄहभव्यंजना के भौहतक साधनं ऄथवा आसी तरह के दूसरे हवभेद और वगीकरण हनरथषक हं। आसका ऄथष यह है कक कला-हवभाजन के सभी हसद्धान्त हनराधार हं। एतदथष केवल एक हवभेद या वगष है वह है

स्‍तवयंकला या सहजानुभूहत। ऄतः क्रोचे की स्‍तथापना है कक “सहजानुभूत ज्ञान ऄहभव्यंजनात्मक ज्ञान है। वह बौहद्धक कक्रया

से स्‍तवतन्र और स्‍तवाय है परवती ऄनुभवाहश्रत प्रभेदं यथाथष और ऄयथाथष स्‍तथान और काल के रूप-संघटनं और ऄवबोधन के प्रहत वह ईदासीन है। सहजानुभूहत ऄथवा प्राहतभ ज्ञान रूप है और आसहलए ईससे हभन् न जो ऄनुभव है वह संवेदन के प्रवाह ऄथवा तरंग से हभन् न है वह मानहसक वस्‍ततु से हभन् न है। यह रूप यह ऄहधकृत ऄहभव्यंजना है।

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HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्‍त र M11 : क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद

सहजानुभूहत होना ऄहभव्यंहजत होना है और हसफष ऄहभव्यंहजत होना है

आससे न कुि ऄहधक न कम।” (सम्पादक – डॉ. नगेन्ि पाश् चात्य काव्यशास्‍त र - हसद्धान्त और वाद हहन्दी हवभाग कदकली

हवश् वहवद्यालय प्रकाशन पृ.201 आस्‍तथेटटक से मूल हवचारं के ऄनुवाद से) 6.

सौन्दयष : रूप और ऄन्तवषस्‍ततु का सम्बन्ध

क्रोचे ने कला मं ‘सुन्दर’ शब्दद को एक हवशेष ऄथष मं स्‍तवीकार ककया है। चूँकक कला मं सुखात्मक-दुःखात्मक ईपयोगी

लाभकारी-हाहनकारक का कोइ मूकय नहं है नैहतकता-ऄनैहतकता का कोइ स्‍तथान नहं है ये सब मनुष्य की

व्यवसायाहत्मका बुहद्ध के चमत्कार हं आसहलए काव्य और कला का मूकय हसफष ‘सुन्दर’ शब्दद से बताया जा सकता है। वहाँ

सुन्दर से ऄहभप्राय हसफष ऄहभव्यंजना के सौन्दयष से है ईहि कौशल से है न कक ककसी वस्‍ततु या प्रस्‍ततुत के सौन्दयष से।

भौहतक सृजन मं रूपहनमाषण मं ऄहभव्यक् त कौशल मं स्‍तवयं-प्रकाश्य अत्मा मं सौन्दयष है। भौहतक जीवन मं सौन्दयष नहं

होता। जब वह वक्रोहि अकद ईहि वैहचत्र्य मं प्रकट होता है तो सुन्दर कदखाइ देने लगता है। दैनहन्दन ऄनुभवं को क्रोचे

ने सौन्दयष से बाहर रखा। कला मं सुन्दर-ऄसुन्दर दोनं ईहि ही है ऄहभव्यंजना की ईहि के स्‍तवरूप मं है।

क्रोचे मानते हं कक सहजानुभूहत हसफष रूप की होती है वस्‍ततु या प्रस्‍ततुत हवधान की नहं। भौहतक ऄहभव्यंजनाएँ जैसे कहव के शब्दद हचरकार की खंची गइ अकृहतयाँ (सौन्दयाषत्मक कृहत) सदैव अन्तटरक होती हं और हजसे बहहगषत कहा जाता है

वह कलाकृहत नहं। सहजानुभूहत ऄहभव्यंजना के हलए ऄपने ऄनुकूल सहजानुभूत रूप की ककप-सृहि करती चलती है

क्यंकक ईसकी प्रकृहत ही रूपात्मक होती है।

7. हनष्कषष

सहज हनष्कषष हनकलता है कक सौन्दयष-हसहद्ध रूप-हसहद्ध है। वह एक मानहसक कक्रया है जो जीवनानुभवं से स्‍तवतन्र होकर कलात्मक ऄहभव्यहि के स्‍तथान का ऄहधकारी होता है ईसकी पूणष स्‍तवाय ता की रचना करता है। क्रोचे की दृहि मं

कलाकार के ऄनुभव का कोइ महत्त्व नहं है। कलाकार के हलए महत्त्वपूणष है वह रूप हजसे वह ककपना द्वारा अकृहत देता

है न कक वे जीवनानुभूहतयाँ जो देश-कालगत पटरहस्‍तथहतयं के ऄनुकूल नइ कला-हवधाओं ऄथवा कला-रूपं को जन्म देती

हं। मसलन अधुहनक काल मं देवताओं की दुहनया वाले महाकाव्य हवधा की हवदाइ और समस्‍तयामूलक नायक के साथ अधुहनक ईपन्यास का ईदय। वस्‍ततुतः क्रोचे का ऄहभव्यंजनावाद वस्‍ततु के ऄन्तरंग को बहुरंग बनाए हबना प्रकट करना

चाहता है।

अचायष शुक्ल ने क्रोचे के ऄहभव्यंजनावाद की सीमा बताइ है कक ईसके ऄनुसार “कला मं ऄहभव्यंजना ही सब कुि है – ऄहभव्यंजना से ऄलग कोइ ऄन्य ऄहभव्यंज्यय वस्‍ततु या ऄथष नहं होता। ऄतः काव्य मं ईहि से ऄलग कोइ दूसरा ऄथष दूसरी

वस्‍ततु तथ्य या भाव नहं होता। कहव की ईहि ककसी दूसरी ईहि का प्रहतहनहध नहं। जो ऄथष ककसी ईहि के शब्ददं से

हनकलता है ईसका सम्बन्ध ककसी दूसरे ऄथष से नहं होता। साहहत्य की पटरभाषा मं आसे यं कह सकते हं कक काव्य मं

वाच्याथष का कोइ व्यंमयाथष नहं होता।” (ईपयुषक् त पृ. 17-18) कलावाद की आस संकीणषता ने साहहत्य के मूकय को रूप साध बेल बूटे नक्काशी एवं मनोरंजन तक सीहमत कर कदया। क्रोचे के हसद्धान्तं की गहरी तत्त्वोन्वेषी दृहि से मूकयांकन करने के बाद अचायष शुक्ल ने खीझ कर कहा था ‘कला कला के हलए’ वाली बात को जीणष होकर मरे बहुत कदन हुए। एक क्या कइ क्रोचे ईसे कफर हजला नहं सकते (ईपयुषक् त पृ. 37)।”

References