HND : हहन्दी P14 : पाश् चात्य काव्यशास्त र M30 : रूपवाद
हवषय हहन्दी
प्रश् नपर सं. एवं शीषषक P14 : पाश् चात्य काव्यशास्त र आकाइ सं. एवं शीषषक M30 : रूपवाद
आकाइ टैग HND_P14_M30
प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश् नपर-संयोजक प्रो. ऄरुण होता
आकाइ-लेखक डॉ. हवनोद साही
आकाइ-समीक्षक प्रो. एस.सी. कुमार भाषा-सम्पादक प्रो. देवशंकर नवीन पाठ का प्रारूप
1. पाठ का ईद्देश्य 2. प्रस्ततावना
3. ऐहतहाहसक हवकास-क्रम
3.1. पहला चरण : कलामूलक रूपवाद 3.2. दूसरा चरण : रूसी रूपवाद
3.3. तीसरा चरण : हिटेन का कला या सौन्दयषबोध 3.4. चौथा चरण : नइ अलोचना
3.5. पाँचवाँ चरण : हशकागो स्तकूल का रूपवाद ऄथवा नवऄरस्ततूवादी रूपवाद 3.6. छठा चरण : नवरूपवाद
4. रूपवादी हसद्धान्त : धारणाएँ एवं प्रवृहियाँ
5. हनष्कषष
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1. पाठ का ईद्देश्य
आस पाठके ऄध्ययन के ईपरान्त अप–
रूपवाद की पररभाषा जानंगे।
रूपवाद के हवहभन् न रूपं के बारे मं ज्ञान प्राप् त करंगे।
रूसी रूपवाद, नइ अलोचना तथा हशकागो स्तकूल के ‘नवऄरस्ततूवाद’ से रूपवाद का सम्बन्ध जान सकंगे।
रूपवाद की सीमाओं का ज्ञान प्राप् त कर सकंगे।
2. प्रस्ततावना
रूपवाद साहहत्य को ‘भाषा मं रचे गए पाठं’ की तरह हववेचनीय मानता है। ऄपने अरहम्भक रूप मं आस हसद्धान्त का
जोर आस बात पर था कक साहहत्य के कृहत-पाठ ‘ऄपने अप मं’ ऄथषपूणष होते हं और ईनकी भाषा के हववेचन को ‘परम्परा- हसद्ध’ या ‘परम्परा-लब्ध’ ऄथं की एक कड़ी की तरह ही नहं देखा जाना चाहहए।
ऄंग्रेजी अलोचना मं ऄरस्ततू, होरेस, स्तपेन्सर, जॉनसन और कॉलररज अकद की मार्षत अलोचना की हजस मुख्यधारा का
हवकास हुअ था, ईसमं ‘हनरन्तरता और नवीनता’ के बीच के ररश्तं की बात ही मुख्यतः की जाती थी। आसका ऄथष यह है
कक परम्परा से ईपलब्ध साहहत्य की हनरन्तरता को कसौटी की तरह ग्रहणकर हलया जाता था। कर्र समय के मुताहबक नवीनता के कम-ज्यादा होने की गुंजाआश का हववेचन प्रस्ततुत कर हलया जाता था। रूपवाद के प्रकट होने से ठीक पहले
स्तवच्छन्दतावादी अलोचना प्रकट हुइ थी। आस अलोचना मं परम्परा की हनरन्तरता के ऄहतक्रमण और कल्पना-प्रसूत नवीनता को ‘तुलनात्मक रूप मं’ ऄहधक महत्त्व प्रदान करने का प्रयास हुअ था। आससे साहहत्य की ‘साहहहत्यकता’ का
‘ऄन्तःसन्तुलन’ हबगड़ गया था। ‘नवीनता’ की व्याख्या को ‘कल्पना पर अहित’ कर देने से ‘साहहहत्यकता’ के स्तवरूप के
ऄमूिष हो जाने का खतरा पैदा हो गया था।
एक साहहहत्यक एवं अलोचनात्मक हववेक के रूप मं हनरन्तरतावाद और नवीनतावाद दोनं को चुनौती देने वाली दृहि की
तरह रूपवाद सामने अता है। वह न परम्परा-हसद्ध ऄथषविा मं अस्तथा रखता है, न परम्परा-ऄहतक्रमी कल्पनावादी
नवीनता मं; वह एक तीसरा रास्तता खोजता है कक साहहत्य दरऄसल ईपलब्ध भाषापाठगत नया संसार रचने का प्रयास होता है। सामान्य-भाषा से ईसका ‘थोड़ा ऄलग’ होना ही ईसकी ‘साहहहत्यकता’ की कुंजी होती है।
आस तरह रूपवाद साहहत्य की कृहतयं के ऄलग तरह के भाषा-पाठं का रूपगत ऄध्ययन है, जहाँ कृहत का ऄथष या ईसकी
ऄन्तवषस्ततु ईसी रूप की ऄन्तवषस्ततु होती है। कृहत का ऄथष हनधाषररत परम्परा हसद्ध हनरन्तरता या कल्पनाप्रसूत नवीनता से
नहं होता।
3. ऐहतहाहसक हवकास-क्रम
3.1
पहला चरण : कलामूलक रूपवाद
कला-सम्प्रदाय के रूप मं रूपवाद का प्रारहम्भक ईभार मुख्यतः सन् 1890 से 1910 के बीच माना जाता है। कला के
रूपवादी अलोचक यह धारणा प्रस्ततुत करते थे कक कला मूलतः एक दृश्य-हबम्बात्मक रचना होती है। आस रचना का प्रभाव
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का ऄन्तः-संसार है, वह रेखाओं, रंगं, ऄनुपातं, घनत्वं व सन्तुलनं द्वारा सभी घटकं साथ ररश्तं से हनर्ममत होता है।
कृहतयं का हववेचन ऄन्य कृहतयं से तुलना पर अधाररत नहं होती। कलामूलक रूपवाद द्वारा बनाइ गइ ईक्त भूहमका को
समझे हबना साहहत्य और अलोचना के क्षेर मं ईभरे रूपवाद के हवहवध रूपं के वास्ततहवक प्रयोजनं को समझना करठन है, यहाँ कलामूलक रूपवाद द्वारा रेखांककत ककए गए, कुछ प्रयोजन आस प्रकार हं–
i. रूपवाद, हवक्टोररयन अहभजात्यवाद और ईससे अरोहपत नैहतकवाद के हवरुद्ध, कला के ‘वास्ततहवक ऄन्तगषत’ की ऄथषविा को ऄहभव्यहक्त देता है।
ii. रूपवाद, स्तवत:स्तर्ूिष भावाहभव्यहक्त वाला स्तवच्छन्दतावादी अन्दोलन न होकर, दृश्य-जगत के ‘वैज्ञाहनक तौर पर पैमाइश हो सकने वाले’ रूपं को रचना-संसार के ‘भीतर’ के ऄथष-सामर्थयष की तलाश करता है।
iii. रूपवाद प्रस्तताहवत करता है कक कला-कृहत का दृश्य-हबम्बात्मक ‘रूप’ ही ईसकी ‘ऄन्तवषस्ततु’ का पयाषय हो
जाता है। ऄथाषत् रूपवाद एक तरर् हवक्टोररयन अहभजात्यवाद का हवरोधी है, तो दूसरी तरर्
स्तवच्छन्दतावाद का भी हवरोधी है।
3.2 दूसरा चरण : रूसी रूपवाद
रूस की समाजवादी क्राहन्त से ठीक पहले सन् 1914-1915 मं मास्तको/सेण्ट पीटसषबगष ऐसे अलोचकं का केन्र बना गया, जो साहहत्य के एक ‘कला-रूप’ के रूप मं देख रहे थे और साहहत्य को साहहहत्यक कृहतयं की ‘अन्तररक गुणविा या
साहहहत्यकता’ के अधार पर व्याख्याहयत करने का प्रयास कर रहे थे। साहहत्य की अलोचना आससे पूवष सामाहजक यथाथष, सास्तकृहतक सरोकार, दाशषहनक ऄन्तभूषहम एवं लेखकीय दृहि के अधार पर की जाती थी। ये अलोचक साहहत्य को ‘साहहत्य के अधार’ पर ही समझना चाहते थे, न कक सामाहजक, ऐहतहाहसक, सांस्तकृहतक, मनोवैज्ञाहनक और जीवनीपरक अधारं
की सहायता से।
सन् 1910 से 1920 तक रूसी रूपवाद का केन्र मास्तको ही रहा, हजसे ‘ओपयाज’ ने सूरबद्ध ककया था। आसके बाद वह रोमन याकोब्सन के रूस छोड़ देने के ईपरान्त प्राग मं, तथा कर्र ऄमेररका मं न्यूयाकष के साहहत्य-संसार तक केहन्रत हो
गया। श्लोव्सस्तकी का हसद्धान्त था कक ‘कला एक ईपकरण है।’ हतन्यानोव का हसद्धान्त हुअ कक ‘कला ईपकरणं की द्वन्द्वात्मक व्यवस्तथा है।’ आन दोनं के हसद्धान्त तक रूसी रूपवाद का सर्र भहवष्य के हलए समस्तयापूणष बना रहा। प्रॉप ने ऄपने
जैहवक अधार से साहहत्य को ‘कृहतयं के भीतर के जीवन व समाज’ से जोड़ कदया था। सस्तयूर ने अधुहनक भाषाहवज्ञान की
मदद से साहहत्य के ‘रूपक्रमी’ मॉडल को, ‘पाठ के भीतर के कालक्रहमक या ऐहतहाहसक पहलू से जोड़ा’। वे भाषा के ईस
‘काव्यगत प्रयोजन’ को व्याख्याहयत करने तक अ गए, जो ‘भाहषक अधार पर भावोद्बोधक’ हो सकता है। आसे हम रूसी
रूपवाद को पढ़ते हुए जान सकते हं।
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3.3
तीसरा चरण : हिटेन का कलाबोध या सौन्दयषबोध
ईन्नीसवं सदी के ऄवसान के असपास आंग्लैण्ड मं ‘कला कला के हलए’ की धारणा से जुड़ा हुअ एक साहहहत्यक- अलोचनात्मक अन्दोलन चला, जो थोड़े समय के हलए ऄपनी चमक कदखा कर हवदा हो गया। आसे रूपवादी हचन्तन- परम्परा से सम्बद्ध हवचारधारा के पूवष रूप की तरह देखा जा सकता है। आस ऄलग तरह के रूपवाद की भूहमका बनाने
वाले मुख्य अलोचक-साहहत्यकार थे – वाल्टर पेटर और ऑस्तकर वाआल्ड।
अरहम्भक कलावाकदयं ने कला मं नैहतकता और ऄनैहतकता पर बहुत बहस की। अस्तकर वाआल्ड, जे.इ. हस्तपनगानष और वाल्टर पेटर ने स्तथाहपत ककया कक कला सौन्दयष की ऄहभव्यहक्त करती है। वह नैहतक या ऄनैहतक नहं होती। अस्तकर वाआल्ड ने कहा कक “समालोचना मं सबसे पहली बात यह है कक समालोचक मं यह परख हो कक कला और अचार के क्षेर पृथक-पृथक हं।” (भारतीय और पाश् चात्य काव्य हसद्धान्त, पृ. 51 पर ईद्घृत, गणपहत चन्र गुप् त, राजकमल प्रकाशन, नइ कदल्ली) जे.इ. हस्तपनगानष ने कहा कक “शुद्ध काव्य के भीतर सदाचार या दुराचार ढूँढना ऐसा ही है जैसा कक रेखागहणत के
समहरकोण हरभुज को सदाचारपूणष कहना और समहद्वबाहु हरभुज को दुराचारपूणष।” (भारतीय और पाश् चात्य काव्य हसद्धान्त, पृ. 5)
प्रश् न ईठा कक कला कला के हलए है या कला जीवन के हलए है। यकद कला जीवन के हलए है तो कला को जीवन मं
नैहतकता का प्रचार करना चाहहए और यकद कला कला के हलए है तो ईसमं जीवनगत नैहतकता खोजना ऄथषहीन है। कला
कला के हलए हसद्धान्त के समथषक हचन्तक रूपवाद के समथषकं की िेणी मं अते हं।
3.4
चौथा चरण : नइ अलोचना
सन् 1930 से 1950 के बीच, रूसी रूपवाद द्वारा बनाइ गइ हचन्तन-भूहम का हवस्ततार, यूरोप व ऄमेररका मं ‘नयी
अलोचना’ के रूप मं हुअ। कृहत के भीतर की दुहनया मं ऄथष की तलाश करते हुए, समाज और संस्तकृहत की चेतनामूलक संरचनाओं की नइ अलोचना ऄनदेखी करती है। ईन संरचनाओं का सम्बन्ध कृहत के ‘भीतर’ की दुहनया से ही था, पर वे
‘बाहर’ के समाहजक-सांस्तकृहतक यथाथष से ऄछूते नहं थे। नए अलोचक बाहरी यथाथष को कृहत की व्याख्या की कसौटी
नहं बनाते थे। परन्तु ईनके हववेचन का एक पहलू ‘पाठक-अलोचक’ की चेतना के ईस संसार की मौजूदगी को स्तवीकार करता था – हजसका हनमाषण बाहरी यथाथष करता था; परन्तु जो कृहत-पाठ की प्रकक्रया मं कृहत के ऄथं मं भी कहं न कहं
शाहमल हो ही जाता था। आस अधार पर हम यह भी देख सकते हं कक ‘नइ अलोचना’, रूसी रूपवाद और संरचनावाद के
बीच एक ‘परोक्ष’ या ऄन्तरंग पुल बना है। रूपवादी और नए अलोचक कृहत-पाठ को ही एकमार हववेचना-भूहम की तरह देखते हं।
3.5
.पाँचवाँ चरण : हशकागो स्तकूल का रूपवाद ऄथवा नवऄरस्ततूवादी रूपवाद
सन् 1950 के असपास ‘नइ अलोचना’ का लगभग ऄवसान हो गया है। ईसकी जगह नइ पद्धहतयाँ ईभर कर अईं। नइ समीक्षा के हवरोध मं हशकागो स्तकूल का ईदय हुअ। हशकागो स्तकूल का प्रारम्भ सन् 1930 के अस-पास हुअ और सन्
1950 तक रहा। आसे कुछ लोग नवऄरस्ततूवादी अलोचना भी कहते हं। ये लोग ऄरस्ततू के कथानक, चररर और हवधा की
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हं। ऄरस्ततू के काव्यशास्त र मं साहहत्य के घटकं के रूप मं पार, कथानक, भाषा, ईद्देश्य अकद की चचाष हुइ थी, हजन्हं
‘कथानक की पूणषता’ का अधार माना गया था। नवऄरस्ततूवादी मानते हं कक कृहतपाठं के घटक, कृहत मं समग्रता का बोध ऄपने ‘प्रयोजनवादी ईद्देश्यं की पूर्मत’ करते हुए ईत्पन् न करते हं। ऄरस्ततू का ‘ऄनुकरण हसद्धान्त’ शक्ल बदल कर शब्दं- हबम्बं अकद घटकं का समग्रताधमी प्रयोजन बन जाता है। ऄथाषत् कृहत बाहरी यथाथष के ऄनुकरण से ऄपना ऄथष नहं
पाती, ऄहपतु ऄपने पाठ के भीतर की व्यवस्तथा की ऄन्तःसमग्रता का ऄनुकरण करती हुइ िेष्ठ साहहहत्यक कृहत का रूप लेती है।
आस नवऄरस्ततूवादी हसद्धान्त के प्रमुख प्रस्ततोता हं – (1) एल्डर ओल्सन, (2) नॉमनष मैक्लीन, (3) डब्ल्यू.अर. कीस्तट व (4) वेन सी. वूथ।
3.6 छठा चरण : नवरूपवाद
डायना हजयोना ने सन् 1987 मं ‘नवरूपवाद’ को ‘रूपवाद की वापसी’ के रूप मं हचहननत करने का प्रयास ककया। आसके
हलए ईन्हंने हनम् न कारण बताए :
i. समकालीन काव्यभाषा रूढ़, हवकृत और बौहद्धक होकर काव्यमयता खो रही है।
ii. कहवता मं ऄहत-शब्दमयता से काव्य-लय और गेय-तत्त्व नि हो गए है।
iii. कथातत्त्व के सौन्दयषशास्त र का काव्य मं आस्ततेमाल नहं हो पा रहा है।
सन् 1995 मं ‘न्यूयाकष पोस्तट’ मं छपी एक रपट ने आस ‘नवरूपवाद’ की हवहधवत वापसी पर मोहर लगाइ, जो काव्य मं
छन्द, गेयता, संगीत, लय, भाव-प्रवाह अकद ‘रूपवादी’ घटकं को काव्य के स्तवरूप की व्याख्या के हेतु के रूप मं पुनः
प्रस्ततुत करता है। नवरूपवादी अलोचना मं आससे पूवष की ‘नइ अलोचना’ और ‘नवऄरस्ततूवादी अलोचना’ से सम्बद्ध ऄनेक अलोचक-कहवयं की ‘लयधमी कहवताओं’ को ऄपने पुनमूषल्यांकन का अधार बनाया।
4. रूपवादी हसद्धान्त : धारणाएँ एवं प्रवृहियाँ
रूपवाद का सम्बन्ध साहहहत्यक कृहतयं को एक ‘भाषा पाठ’ के रूप मं ग्रहण करते हुए, ईनकी ‘साहहहत्यकता’ को
पहचानने और हववेहचत करने के साथ है। भाषा-पाठ केहन्रत ऄध्ययन होने से आसमं साहहहत्यकता का ऄथष, भाषा-पाठीय
‘कला’ और ईसकी ‘भीतरी दुहनया की पाठ-स्तवायत ऄन्तवषस्ततु’ का हववेचन करना होता है। बाहरी दुहनया और ईसके
यथाथष से सम्बद्ध ‘संरचनाएँ’, रूपवाद मं ‘पाठ-स्तवायि संसार की ऄन्तःसंरचनाओं’ की तरह ही व्याख्याहयत होती है।
रूपवाद की अधार-धारणाएँ आस प्रकार हं
–
I. साहहहत्यक कृहतयं के भाषा-पाठ ही, ‘गहरे मं’ ऄन्तवषस्ततु होती है। ऄथाषत् ऄन्ततः ‘रूप’ ही कृहत का ‘ऄथष’ होता है।
II. साहहहत्यक कृहतयं के भाषा-पाठ, भाषा मं हनर्ममत ‘कला-वस्ततुओं’ जैसे होते है। ऄतः वहाँ कला-कृहत की तरह सभी
घटक एक-दूसरे से ररश्ता बनाते हं और कुछ भी व्यथष नहं होता।
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III. भाषा-पाठीय ऄथष साहहत्य मं कृहतयं के घटकं के अपसी-ररश्तं से
प्रकट होते हं। शब्दं के ‘ऄपने ऄथष’ वहाँ ‘वाक्य’ व ‘समग्र पाठ’ से बनने वाले ररश्तं के अधार पर नए व ऄलग हो जाते
हं। शब्दं के ऄथं के अधार है – सन्दभष, प्रयोग-रूप, प्रयोजन, ऄन्य शब्दं से सम्बन्ध, पाठ-समग्र से सम्बन्ध।
IV. ‘लेखक ने क्या कहा या क्या कहना चाहा?’ – आससे ज्यादा ऄथषपूणष बात है कक ‘कृहत ऄपनी समग्रता मं क्या कहती है’
और ‘ईसे ककतने लोग ककन रूपं मं समझते हं?’
V. पाठकीय ऄथं की हभन् नता के बावजूद, कृहत का मूल-पाठ ही कसौटी होता है, जो तय करती है कक खोजा गया ऄथष ईसके ‘भीतरी स्रोतं’ से ईपजा है या नहं? ‘बाहरी ऄथं के अरोहपत पाठकीय ऄथं का पररत्याग’ करना होता है तथा
कृहत-पाठ की नइ व्याख्याओं को ईसकी ‘भाषा-पाठीय’ ऄन्तःसामर्थयष की तरह देखना होता है। जो समय के साथ ईद्घारटत होता है।
रूपवादी ऄध्ययन, साहहहत्यक कृहतगत भाषा-पाठं को हनम् न घटकं-स्ततरं-अयामं मं हववेचनीय मानते हं-
(i)
हवधागत ऄध्ययन(ii)
पद्धहत, शैली एवं रचना-प्रकक्रया गत ऄध्ययन।(iii)
रूपगत प्रवृहियं व हवशेषताओं का ऄध्ययन।(iv)
काव्यभाषागत ऄथवा साहहत्यभाषागत ऄध्ययन।5.
हनष्कषषरूपवाद बीसवं सदी मं ही ऄपने अलोचना हसद्धान्त का हवकास कर पाया, परन्तु आसके स्रोतं के रूप मं जहाँ एक ओर ऄरस्ततू का काव्यशास्त र है, वहं दूसरी ओर ‘कला कला के हलए’ की घोषणा करने वाले कला-अन्दोलन। हालाँकक रूपवाद ऄपने आन दोनं स्रोतं से ऄलग शक्ल मं हवकहसत हुअ है, परन्तु आसके कुछ समसामहयक रूप नवऄरस्ततूवादी व नवरूपवादी शक्ल लेकर स्रोतं मं एक ऄलग तरह की वापसी करने का प्रयास करते हं।
रूपवादी ऄध्ययन ऄपनी व्याख्याओं के हलए अधुहनक भाषाहवज्ञान की संरचनात्मक पद्धहतयं का आस्ततेमाल करता है।
ऄतः बहुत से अलोचक ईसे संरचनाओं के बहुत हनकट मानते हं। तथाहप यथाथष की बाहरी संरचनाओं को ऄपना ‘अधार’
बनाने से आनकार करने की वजह से रूपवाद, संरचनावाद से बहुत ऄलग हो जाता है। वह प्रकट होने के बाद से ऄनेक ईतार-चढ़ावं का साक्षी रहा है, तथाहप आसने बार-बार रूप बदल-बदल कर वापसी भी की है। आससे ईसका महत्त्व प्रमाहणत होता है।
रूपवाद की प्राथहमक स्तथापना यह है कक रचना को रचना के भीतर से देखना चाहहए। रूपवाद एक साहहहत्यक या
कलात्मक अन्दोलन नहं है, वरन् साहहत्य हसद्धान्तं की एक शाखा है, जो यह मानकर चलती है कक हवशेष पाठ का
संरचनात्मक ऄध्ययन होना चाहहए और ऐसा करते हुए ईस पाठ पर ककसी बाहरी प्रभाव को नहं देखना चाहहए।
रूपवादी दृहि समाज का, संस्तकृहत का या पाठ के लेखक का, वातावरण का कुछ प्रभाव पड़ता है, आसे नहं देखती। वह हसर्ष रचना की हवहध, हवधा और रूप का ऄध्ययन करता है। हालाँकक रूपवाद हसर्ष पाठ का व्याकरहणक ऄध्ययन मार नहं है।
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वह कला वस्ततु के स्तवरूप पर ऄपनी दृहि केहन्रत करता है। ककसी कृहत के सृजन मं लेखक का क्या प्रयोजन था, ईस समय लेखक की क्या मानहसकता थी, वह ऄकेला था, बीमार था या ख़ुश था, लोगं से हघरा हुअ था- आन सब बातं का पाठ से
कोइ सम्बन्ध नहं होता। आसे रूपवादी अलोचक ऄहभप्रायपरक हेत्वाभास कहते हं। लेखक क्या कहना चाहता था? आससे
अलोचना को कुछ लेना देना नहं। एक तो आस बात का पता लगाना ही मुहश्कल होता है कक लेखक ने क्या कहना चाहा
होगा? यकद पता भी चल जाए तो वह महत्त्वपूणष नहं है। महत्त्वपूणष यह है कक कृहत क्या कहती है? पाठ जैसा हनर्ममत हो
गया है, वह महत्त्वपूणष है। ऄतः लेखक का मनोहवज्ञान हमारी कोइ सहायता नहं करता। दूसरे लेखक के ऄहभप्राय का
ऄध्ययन पाठ का ऄध्ययन नहं है। वह पाठ से आतर है। वह रचना पर की गइ बात भी नहं है।
आसी तरह पाठ का क्या प्रभाव पड़ता है? लेखक क्या प्रभाव डालना चाहता है? वह प्रगहत के पक्ष मं हो सकता है या नहं
भी हो सकता है। सम्भव है कृहत एक समय मं एक प्रभाव डाले दूसरे समय मं दूसरा प्रभाव डाले। यह रचना का सामाहजक या सांस्तकृहतक ऄध्ययन है। साहहहत्यक ऄध्ययन नहं है। यह प्रभावपरक हेत्वाभास है। ऄतः ऄहभप्राय और प्रभाव से
हनरपेक्ष पाठ का ऄध्ययन रूपवाद की मूल स्तथापना है।
रूपवाकदयं का अरोप है कक अलोचक के पास जब कोइ पाठ अता है, तो वह ईस पाठ पर कम और ईसकी पृष्ठभूहम पर ऄहधक ध्यान देता है। अकाशदीप कहानी पढने के बाद अलोचक यह जानने लग जाता है कक प्रसाद ने यह कहानी क्यं
हलखी? वे क्या कहना चाहते थे? क्या प्रसाद ने ककसी से प्रेम ककया था? कक ईन्हंने अकाशदीप की चम्पा की सृहि कर डाली? ऄब आन प्रश्नों की ख़ोज मं वह प्रसाद की जीवनी टटोलने लगता है। ईनके हनजी परं को पढ़ता है। कहं हमल जाए, तो वह डायरी पढ़ता है। प्रसाद के हमरं के संस्तमरण आकठ्ठा करता है। आस सब प्रकक्रया मं अकाशदीप छूट जाती है। जब वह गोदान पढ़ता है तो स्तवाधीनता अन्दोलन पर ईसकी दृहि चली जाती है। आस प्रश् न पर दृहि जाती है कक गोदान के
ऄनुसार भहवष्य का समाज कैसा होगा? क्या वैसा समाज हमारा हो गया। आन समाजशास्त रीय, ऐहतहाहसक प्रश् नं पर चचाष करने लगता है। ये रटप्पहणयाँ ‘कला वस्ततु’ पर नहं है। ये रचना से बाहर की रटप्पहणयाँ हं, आसहलए आन पर की गइ अलोचना साहहहत्यक अलोचना नहं है। ऄतः रूपवाकदयं का कहना है कक अप रचना के भीतर रहं। पाठ ऄपने अप मं
पूणष है। ईसका ऄथष ईसके भीतर है। नाटक के मंचन का ईदाहरण देते हुए ऐसे अलोचक कहते हं कक नाटक के प्रदशषन के
दौरान बाहर भीड़ पर लाठीचाजष हो गया है या अँधी-तूफ़ान अ गया है। हवा बहुत तेज चल रही है या हड़ताल के कारण यातायात बाहधत हो गया है। दशषकं को रंगमंच तक पहुँचने मं कदक् कत हो रही है। आन सब बातं का नाटक की कलावस्ततु
से कोइ सम्बन्ध नहं है। आसहलए आन ‘कृहत बाह्य’ चीजं को रूपवादी अलोचक महत्त्व नहं देते।
ईनके ऄनुसार कहवता ‘शब्द–संरचना’ है, भाव–संरचना नहं है। भाव शब्द मं हनहहत है। शब्द से बाहर नहं है। कृहत की
व्याख्या सन्दभष सहहत होती रही है। ररचर्डसष ने कहा है कक सन्दभष ऄथष का बाहर से अरोपण है। ऄथष की खोज पाठ के
भीतर से होनी चाहहए। सन्दभष मं पाठ का ऄथष नहं है।
आसी तरह रूपवादी यह मानते हं कक समाज मं, कहवता मं, ज्ञान-हवज्ञान मं मानवजीवन की सारी सच् चाआयाँ ऄहभव्यक्त हो
चुकी हं। अप वस्ततु तत्त्व के रूप मं नया कुछ नहं कह सकते। दो लेखक एक ही बात कहते हं, परन्तु दोनं के कहने का
तरीका ऄलग है। यह तरीका ही कला है। यही रूप है। ऄतः आसका ऄध्ययन होना चाहहए। ईदाहरण के हलए ग़ाहलब और प्रसाद की पंहक्तयं को हलया जा सकता है। ग़ाहलब कहते हं-
ईनके देखे से जो अ जाती है मुँह पर रौनक वह समझते हं कक बीमार का हाल ऄच्छा है।
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प्रसाद कामायनी मं हलखते हं-
कौन हो तुम बसन्त के दूत हवरस पतझड़ मं ऄहत सुकुमार!
घन-हतहमर मं चपला की रेख, तपन मं शीतल मन्द बयार।
नखत की अशा-ककरण समान, हृदय के कोमल कहव की कान्त कल्पना की लघु लहरी कदव्य, कर रही मानस-हलचल शान्त।
दोनं कहव क्या कहते हं? यकद आनका सार-संक्षेप करना हो, ऄथष हनकालना हो तो वे यही कह रहे हं कक हप्रय का अना, ऄच्छा लगा। ग़ाहलब ने बीमारी का प्रकरण चुना। बीमार हप्रय को देखने के हलए प्रेहमका अइ है। ईसके अने से बीमार के
चेहरे पर रौनक अ गइ, जो स्तवाभाहवक है। रौनक देखकर अने वाले को लगा कक बीमार का हाल ऄच्छा है। प्रेमी भी खुश और प्रेहमका भी खुश। बीमार की पीड़ा तो जो है सो है।
कामायनी मं िद्धा मनु को देखती है और देखकर मुग्ध हो जाती है- प्रथम दृहि से ईत्पन् न प्रेम। सारी ईपमा, ईत्प्रेक्षाओं के
बावजूद कहवता बस यही तो कहती है कक अपको देखना ऄच्छा लगा। ऄब कहवता की दृहि से तो सारी बातं का सार- संक्षेप एक ही है। ग़ाहलब का ऄन्दाज़ ऄलग है और प्रसाद का ऄलग। ये जो दोनं का ऄलग-ऄलग ऄन्दाज़ है, रूपवाकदयं
के ऄनुसार यही कला है और यही रचना का रूप है। रूपवाद आसके ऄध्ययन पर बल देता है।