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प्रश् नपत्र सं. एवं शीषषक P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) आकाइ सं. एवं शीषषक M29: जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

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HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) M29 : जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

हवषय हहन्दी

प्रश् नपत्र सं. एवं शीषषक P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) आकाइ सं. एवं शीषषक M29: जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

आकाइ टैग HND_P5_M29

प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट प्रश् नपत्र-संयोजक प्रो. चौथीराम यादव आकाइ-लेखक डॉ. शहशकला हत्रपाठी

आकाइ-समीक्षक प्रो. जवरीमल्ल पारख भाषा-सम्पादक नीलम सेन

पाठ का प्रारूप 1. पाठ का ईद्देश्य 2. प्रस्तावना

3. सूफी, सूफीमत और सूफी सम्प्रदाय 4. जायसी की सूफी साधना

5. रहस्यवाद

6. जायसी का रहस्यवाद

7. हनष्कषष

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HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) M29 : जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

1. पाठ का ईद्देश्य

आस पाठ के ऄध्ययन के ईपरान्त अप -

 भहिकाल की प्रेममागी ‘शाखा' से पररहचत हंगे।

 प्रेम का ददव्य रूप और सूफी कहव के बारे मं पररचय हाहसल करंगे।

 सूफीमत की हवशेषताएँ समझ सकंगे।

 सूफीमत का ऄन्य मतं से सम्बन्ध के बारे मं जानकारी ले सकंगे।

 सूफीमत और आस्लामी रहस्यवाद का सम्बन्ध जान सकंगे.

 जायसी का दाशषहनक हचन्तन समझ सकंगे।

 जायसी का समन्वयवादी दृहिकोण जान पाएँगे।

 जायसी की लोकहप्रयता का जायजा ले सकंगे।

2.

प्र

स्तावना

हजन कहवयं ने लौदकक (सांसाररक) प्रेम के माध्यम से ऄलौदकक (इश् वरीय) प्रेम का वणषन दकया, वे भिकहव ‘प्रेममागी’

कहे गए। मुल्ला दाईद, महलक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, काहसमशाह, नूर मुहम्मद अदद आसी धारा के कहव हं।

आनमं सवाषहधक प्रहतष्ठा जायसी को हमली और वे प्रहतहनहध कहव कहलाए। ईनके तीन ग्रन्थ बताए गए हं - पद्मावत, ऄखरावट और अहखरी कलाम। आनमं पद्मावत सवोत्तम रचना है। डॉ हशवसहाय पाठक ने दो ऄन्य ग्रन्थं - हचत्ररेखा और कन्हावत की खोज की। ईनके ऄनुसार सम्भवतः कन्हावत को ही गासाष द तासी (हहन्दी साहहत्य के प्रथम आहतहास लेखक) ने घनावत के रूप मं ईहल्लहखत दकया है। (गगनांचल, जनवरी-फरवरी 2014) एक ऄज्ञात लेखक ने तो चौदह कृहतयं का

नामोल्लेख दकया है।

3. सूफी, सूफीमत और सूफी सम्प्रदाय

आस्लाम मं रहस्यवाददयं को ‘सूफी’ कहा गया है। ये सांसाररकता से हवमुख होकर परमात्मा के प्रेम मं आतने तल्लीन हो

जाते हं दक बेसुध प्रतीत होते हं। आस ऄवस्था तक पहुँचने के हलए वे करठन से करठन साधना करते हं, हजसमं प्रेम सवोत्कृि

होता है। ऐसे ही मुसलमान सन्तं या फकीरं को ‘सूफी’ कहा गया। परमात्मा के साथ एकमेक होना, ईनका चरम लक्ष्य होता है।

‘सूफी’ शब्द की व्युत्पहत्त के प्रसंग मं हवद्वान एकमत नहं हं। एक मत है, मदीना मं मुहम्मद साहब द्वारा बनवाइ गइ महस्जद के ‘सूफ्फा’ (चबूतरे) पर बैठकर खुदा की प्राथषना करने वाले सूफी कहे गए। दूसरी धारणा है, ‘सूफी’ शब्द ‘सूफा’ से

बना है हजसका ऄथष है ‘पहवत्रता’। सूफी वे हं हजनका मन तन से ऄहधक शुद्ध हो और ईनके दिया-कलापं मे बाह्याडम्बर न हो। तीसरा मत है, सूफी शब्द का ईत्स ‘सफ़’ (पंहि) से है। सूफी वे कहलाएँगं जो सदाचार के कारण परमात्मा के हप्रय हंगे। वे हनणाषयक क्षण मं हवशेष पंहि मं खड़े दकए जाएँगं। चौथी धारणा है, ग्रीक शब्द ‘सोदफया’ से सूफी शब्द हनस्सृत हुअ है हजसका ऄथष है ‘हनमषल ज्ञान’। जो हनमषल ज्ञान के ऄहधकारी होते हं, ईन्हं सूफी कहा गया। पाँचवाँ, बहुमान्य मत यह है दक ‘सूफ’ (उन) से सूफी शब्दकी व्युत्पहत्त हुइ। आस धारणा के पक्ष मं ब्राईन मारगोहलयन, हनकल्सन, आस्लामपन्थी

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और हहन्दी के अचायष भी खड़े ददखाइ देते हं। अठवं और नवं सदी मं

ऄरब मं सूदफयं की पहचान ईनके ढीले-ढाले उनी वस् त्रं से होती थी। वे उन के कम्बल लपेटे रहते थे और इश् वर के प्रेम मं

लीन रहते थे (अचायष रामचन्र शुक्ल, जायसी ग्रन्थावली की भूहमका, पृ. 10)।

सूदफयं के दाशषहनक हचन्तन को ‘सूफीमत’ कहा गया। ऄरबी मं आसके हलए ‘तसव्बुफ’ शब्द का प्रयोग हुअ। लेदकन खुद सूदफयं ने न तो सूफीमत शब्द का व्यवहार दकया और न ‘तसव्वुफ’ शब्द का। सूफीमत का प्रयोग हहन्दी मं तो सन्तमत के

अधार पर ऄंग्रेजी के ‘सूफीज़्म’ के सहारे सहज ही चल पड़ा। परन्तु ‘सूफ’ से ऄरबी मं ‘तसव्वुफ’ बना, हबलकुल ऄपने ढंग पर। (चन्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ ऄथवा सूफीमत, हनवेदन)

‘सूफीमत’ से अशय है - अत्मा, परमात्मा और जगत के पारस्पररक सम्बन्धं की भावपूणष हववेचना। आस्लामपन्थी

‘एकेश् वरवाद’ मं हवश् वास करते हं। ईनके ऄनुसार, परमात्मा आस संसार के सभी वस्तुओं या पदाथं से हभन् न है। ईसके

समकक्ष कोइ नहं है। वह जात (सत्ता), हसफत (गुण) और कमष मं ऄतुलनीय है। सूफीमत मं भी ‘एकेश् वरवाद’ को प्रहतष्ठा

हमली, दकन्तु हभन् न रूप मं। आनके हसद्धान्त को ‘सवेश् वरवाद’ कहा गया। यहाँ परमात्मा परमसत्य (ऄनलहक) होते हुए भी

सृहि और समस्त प्राहणयं से ऄलग नहं हं। सृहि ईसी के ऄहभव्यि होने की आच्छा का पररणाम है। वह जगत रूपी दपषण मं सदैव प्रहतहबहम्बत होता है, ऄतः यह जगत ईसकी प्रहतच्छहव है। “मनुष्य ईस प्रहतच्छहव की अँख जैसा है...। हजस प्रकार से अँख की पुतली मं सम्पूणष प्रहतच्छहव ईतर अती है, ईसी प्रकार से मनुष्य ईस परमात्मा को, ईसकी प्रहतच्छहव को ऄपने अप मं बसाए हुए है (रामपूजन हतवारी, सूफीमतः साधना और साहहत्य, पृ. 254)।”

परमात्मा के प्रसंग मं दो हसद्धान्त सूफीमत का प्रहतहनहधत्त्व करते हं - एक ‘वहदतुलवुजूद’ का हसद्धान्त, हजसके प्रवतषक मुहीईद्दीन आब्नुल ऄरबी कहे जाते हं। ईनकी दृहि मं परमात्मा की ही एकमात्र सत्ता है। सम्पूणष जगत ईसी की ऄहभव्यहि

है। दूसरा ‘वहदतुश्शुहूद’ का हसद्धान्त, हजसके प्रवतषक शेख करीम जीली हं। आन्हंने परमात्मा और जीव दोनं की सत्ता को

स्वीकार दकया है। दकन्तु जीव ‘शून्य जैसी हस्थहत मं होता है। वह ऄहस्तत्त्ववान तभी होता है, जब परमात्मा की कृपा होती

है।

परमात्मा और सृहि दोनो का ऄंग होने से मनुष्य मं सत्-ऄसत् दोनं भाव होते हं। इश् वरीय ऄंश ‘सत्’ ऄपने ईद्गम स्थल पर लौटना चाहता है, लेदकन ऄसत् तत्त्व (शरीर) के कारण ऐसा नहं हो पाता। आस मागष मं बाधक तत्त्व ‘ऄहंकार’ है।

ऄतः सूफी पहले ईसे ही नि करना चाहते हं। आस हनहमत्त मरण, स्वत्त्व को हमटाना और हसर काटकर रखना जैसी

शब्दावहलयं का प्रयोग करते हं।

सूदफयं की पूणष अस्था ऄल्लाह मं है। ‘कुरान’ ऄल्लाह की दिताब है, यह मान्यता ईनकी भी थी। परन्तु वे परमात्मा से

सीधा सम्बन्ध बनाने के हहमायती थे। परमात्मा को ईन्हंने ‘परम-सत्य’, ‘परम-सौन्दयष’ ही नहं ‘परमप्रेम’ भी कहा।

परमात्मा ही अनन्दानुभूहत के हलए प्रेमभाव मनुष्य मे जगाता है। “प्रेम पर ही सूफीमत का प्रासाद खड़ा दकया गया है।

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प्रेम पर सूदफयं का आतना व्यापक और गहरा ऄहधकार है दक लोग प्रेम

को सूफीमत का पयाषय समझते हं।'' (चन्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ ऄथवा सूफीमत, पृ. 10-11)।”

‘सूफीमत’ आस्लाम का एक ऄंग माना जाता है, हजसे ऄपेक्षाकृत ईदार माना गया। जब सूदफयं के हसद्धान्त आस्लाम के

दृहिकोण से मेल न खाते, तो वे कुरान और हदीसं की नइ व्याख्या कर ऄपने मत का प्रहतपादन करते। ईन्हंने पैगम्बरी

कट्टरता स्वीकार नहं थी। वेदं की प्रतीकोपासना और सगुण भिं के प्रहतमापूजन के प्रहत पैगम्बरी मतं मं जो द्वेष था, ईसे वे ऄनुहचत मानते थे। वे तो स्वयं ऄपने ईपास्य को बुत के रूप मं देखने लगे और बुतं के अगे हसजदा करने मं ईन्हं

हहचक न होती।

‘सूफीमत’ के ईत्कषष मं हजन सूदफयं का योगदान महत्त्वपूणष है ईनके नाम हं - मारुफ करखी, राहबया, हसन ऄल बसरी, जूलनून, यजीद, जुनैद, मंसूर हबन हल्लाज और आमाम गज्जाली। हल्लाज तो सूफीमत के हशरोमहण कहे गए। ईनके

ऄद्वैतवाद - ऄनलहि (मं ही ब्रह्म हूँ) से खलीफा नाराज थे। आसहलए, ईन्हं सूली पर चढ़ाया गया। तत्पश् चात्, ऄल गज्जाली

ने सूफीमत को ईदार बनाने की ददशा मं समन्वयवादी नीहत ऄपनाइ। वह कुरान, राहबया, ऄलबसरी, जुनैद से ही नहं, यूनानी दाशषहनकं से भी प्रभाहवत हुअ। ईसके द्वारा धमष, दशषन और भहि भावना मं जो समन्वय हुअ ईससे तसव्वुफ की

प्रहतष्ठा मं हस्थरता अइ। आस प्रसंग मं हजली, ऄरबी और रुमी के नाम भी हलए जाते हं, हजन्हंने सूफी परम्परा को अगे

बढ़ाया।

आस्लाम के अधार के बावजूद सूफीमत मं ऄन्य धमं या मतं से भी सहन् न कटता ददखाइ देती है। भारतीय धमष, दशषन, ईपहनषद, वेदान्त, ऄद्वैतवाद, हवहशिाद्वैतवाद, बौद्धदशषन अदद के हसद्वान्तं को भी सूदफयं ने अत्मसात दकया। बौद्धं के

‘हनवाषण’, ‘ध्यानावस्था’ और ‘एकान्तसेवन’ तथा सूफीमत के ‘फना’, ‘मुराकथा’, और ‘हखलवत’ के हसद्धान्तं मं समानता

है। ब्राईन हनकोल्सन जैसे हवद्वान सूफीमत मं नवऄफलातूनी दशषन (ग्रीक-दशषन) की छाया ऄहधक पाते हं। वहाँ भी चरम- लक्ष्य की प्राह‍ त मं बुहद्ध और तकष का हनषेध है। कहना न होगा दक सूदफयं का सम्पकष हजन देशं से हुअ, ईसके धमष, दशषन से वे ऄप्रभाहवत नहं रह सके।

सूफीमत के हवहभन् न सम्प्रदाय हं। ईनमं हचश्ती सम्प्रदाय, सोहरावदी सम्प्रदाय, कादरी सम्प्रदाय, नक्शबन्दी सम्प्रदाय, औहलया सम्प्रदाय, साहबरी सम्प्रदाय और मेहदवी सम्प्रदाय प्रमुख हं। भारतवषष मं सूदफयं का प्रवेश बारहवं सदी मं

ख्वाजा मुआनुद्दीन हचश्ती के समय से माना जाता है। ईन्हंने ही हचहश्तया सम्प्रदाय की स्थापना की। ईन्हं के हशष्य परम्परा मं बाबा फरीद और ईनके हशष्य हनजामुद्दीन औहलया अते हं। आस सम्प्रदाय मं संगीत को प्रधानता दी गइ है।

रामचन्र शुक्ल और परशुराम चतुवेदी जायसी को आसी सम्प्रदाय से जोड़ते हं। मशहूर सन्त शेख शहाबुद्दीन सुहरवदी के

नाम पर सोहरावदी सम्प्रदाय की स्थापना हुइ। आस सम्प्रदाय के सूफी ऄहधक दुहनयादार थे। वे गृहस्थ होते थे और ईनका

सुल्तानं से सम्बन्ध भी बना रहता। हहन्दी के कहव कुतुबन का सम्बन्ध आसी सम्प्रदाय से था। शेख काददरी हजलानी

‘कादररया’ सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हं। शाह हनयामत ईल्लाह और महमूद हजलानी सिसध मं आसी सम्प्रदाय के

प्रचारक बने। नक्शबन्दी सम्प्रदाय के प्रवतषक ख्वाजा बहाईद्दीन कहे जाते हं। बाबर, हुमायूँ, ऄकबर अदद का वंशानुगत सम्बन्ध आसी सम्प्रदाय से था। काददररया और नक्शबहन्दया सम्प्रदाय से दकसी हहन्दी कहव की सम्बद्धता ज्ञात नहं होती।

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रामपूजन हतवारी और रामखेलावन पाण्डेय जायसी का सम्बन्ध मेहदवी

सम्प्रदाय से बताते हं, हजसके संस्थापक मीर सैय्यद मोहम्मद जौनपुरी थे। हवजयदेव नारायण साही का ऄहभमत एकदम हभन् न है। ईनका तकष है, पद्मावत के कड़वक मं गुरुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गइ है, दफर जायसी को दकसी एक गुरु से

कैसे जोड़ा जा सकता है।

4.

जायसी की सूफी साधना

परमात्मा-हमलन के हलए ‘साधना-पथ’ पर चलना ऄहनवायष होता है। आस पथ को सूदफयं ने ‘सूफी साधना’ या ‘सूफी मागष’

कहा है। साधना के हबना चरम-लक्ष्य की प्राह‍ त सम्भव नहं होती। आस्लाहमक पृष्ठभूहम होने के कारण जायसी के ग्रन्थं मं

जाने-ऄनजाने सूफी साधना के सभी हबन्दु हमल जाते हं।

‘प्रेम’ सूफी साधना मं सवाषहधक महत्त्वपूणष है। लौदकक प्रेम मं आतनी ईदात्तता ददखाइ जाती है दक वह पारलौदकक प्रतीत होने लगता है। ‘आश्क मजाजी आश्क हिीकी की सीढ़ी है और ईसी के द्वारा आन्सान खुदी को हमटा कर खुदा बन जाता है।’

(चन्रबली पाण्डेय, तसव्वुफ ऄथवा सूफीमत, पृ. 10)

जायसी स्पि कहते हं दक प्रेम के बल पर ही मनुष्य बैकुण्ठ का ऄहधकारी बनता है, ऄन्यथा ईसका जीवन एक मुट्ठी राख के

सदृश है - मनुष्य प्रेम भएई बैकुण्ठी। नासिह त काह छार एक मूँठी।। साधक ‘प्रेम हपयाला’ पीता हुअ ईन्माद की दशा तक पहुँच जाता है। वहाँ ईसे परमात्मा से तादात्म्य की ऄनुभूहत होती है। रत् नसेन के भावाहविावस्था (हाल) का वणषन करते

हुए जायसी ने हलखा है -

सुनतहह राजा गा मुरुछाइ । जानहुँ लहरर सुरुज कै अइ ।।

परा सो प्रेम समुंद ऄपारा । लहरसिह लहर होइ हवसँभारा ।।

भावाथष यह दक हीरामन तोता से पद्मावती का ‘नखहशख वणषन’ सुनकर रत् नसेन प्रेमानुभूहत की तीव्रता से मूर्छछत हो जाता

है। मानो, सूयष की लहर ऄथाषत लू का झंका अ गया हो। वह प्रेम के समुर मं हगर गया था। अकांक्षा की लहरं के बार-बार ईठने से वह बेसुध हो जाता। यहाँ पूवषराग (हमलन के पूवष) की तीव्र हवरहानुभूहत की ऄहभव्यहि हुइ है। अचायष रामचन्र शुक्ल रत् नसेन को अत्मा और पद्मावती को परमात्मा का प्रतीक बताते हं। सूफी काव्यं मं साधक ‘अहशक’ होता है और साध्य ‘माशूका’। दकन्तु पद्मावत मं आस अध्याहत्मक संकेत का पूणष हनवाषह नहं हो पाया है -

गुरु सुवा जेहह पन्थ ददखावा । हबन गुरु जगत को हनरगुन पावा ।।

पद्मावत की ईपयुषक् त पंहि मं जायसी ‘सुवा’ को गुरु के रूप मं ददखाते हं। वह रत् नसेन को साधना के पथ पर ऄग्रसर करते

है। जायसी का हवश् वास है दक गुरु ही हनगुषण को सगुण बनाता है। आसहलए ईनकी दृहि मं गुरु का महत्त्व है। हजन सन्त, फिीरं के हवचार ईन्हं ऄनुकरणीय लगे, ईन्हं जायसी गुरुवत् स्मरण करते हं। यह ‘गुरुवाद’ भारतीय धमषसाधनाओं की

हवशेषता थी, हजसे सूदफयं ने ऄपनाया और ऄपने काव्यदशषन मं ईनका प्रहतपाददत दकया।

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परमात्मा ‘परसौन्दयष’ है। ईसके सौन्दयष का अभास प्राकृहतक तत्त्वं से

होता है। आस प्रकार, नानारूपात्मक यह जगत ब्रह्म का प्रहतहबम्ब है। यही है सूदफयं का ‘प्रहतहबम्बवाद’। जायसी ने

पद्मावती के रूप मं ददव्यता का पूरा संकेत देते हुए हलखा है -

हबगसे कुमुद देहख सहस रेखा। भै तेसिह रूप जहाँ जो देखा।।

पाए रूप रूप जस चहे। सहस मुख सब दरपन होआ रहै।।

सरलाथष यह दक चन्रमारूपी पद्मावती के मुस्कुराने से कुमुददनी रूपी सहखयाँ भी हवकहसत हो गईं। हजसने ईसे देखा, ईसी

रूप का हो गया। दपषण-सदृश पदाथं मं ईसी का रूप प्रहतहबहम्बत होता है। पद्मावती हबम्ब है और यह जगत ईसका

प्रहतहबम्ब।

जायसी का सम्बन्ध मूलतः आस्लाम धमष से था। ऄतः आस्लाहमक मान्यताओं की स्वीकृहत ईनके हवचारं मं हमलती है।

ईन्हंने पद्मावत् के स्तुहतखण्ड मं ‘करतार’ का सुहमरन करते हुए ईसकी सृजनात्मकता का बखान आस तरह दकया है - कीन्हेहस प्रथम जोहत परगासू । कीन्हेहस तेसिह हपरीत कहवलासू ।।

कीन्हेहस धरती सरग पतारु । कीन्हेहस बरन-बरन ऄवतारु ।।

ऄथाषत, इश् वर ने पहले ज्योहत (पैगम्बर) ईत्पन् न दकया। दफर ईसकी प्रसन् नता के हलए हवलास (स्वगष), धरती और पाताल बनाए और ईनमं बरन-बरन के जीवं की रचना की। यह हवश् वास भी सूफी साधना का ऄंग है।

सूफी साधना मं ‘शैतान’ की पररकल्पना अत्मा-परमात्मा के हमलन मं बाधक शहि के रूप मं हुइ है। जबदक भारतीय ऄद्वैतवाद मं ‘माया’ बाधक तत्त्व है। जायसी ने सूफीमत के ऄनुसार ही पद्मावत मं राघव को शैतान के रूप मं वर्छणत दकया है - राघव दूत सोइ सैतानू। प्रमुख बाधक तत्त्व ‘ऄहंकार’ है। ऄहं ही साधक को लक्ष्य तक पहुँचने नहं देता। आसे

हमटाकर ही परमात्मा मं लीन हुअ जा सकता है। ‘ऄनलहक’ का ज्ञानोदय भी ऄहं के नि होने पर ही होता है - हं हं कहत सबै महत खोइ । जौ तू नासिह अहह सब कोइ ।।

अपुहह गुरु सं अपुहह चेला। अपुहह सब औ अपु ऄकेला ।।

सरलाथष यह है दक सब ‘मं’, ‘मं’ करते हुए बुहद्ध नि कर देते हं। जब मं या तू नहं होता तो वही सब कुछ होता है। वही गुरु

होता है और वही हशष्य। वह सब मं होता है और सबमं होते हुए ऄकेला होता है। ऄहं नाश के बाद ही ऄद्वैत हस्थहत अती

है।

ईपहनषद मं पंचभूतं का वणषन है। ईसमं अकाश से वायु, वायु से ऄह‍ न , ऄह‍ न से जल एवं जल से पृथ्वी का ईत्पहत्त िम है। जबदक, जायसी ऄरब देशं की मान्यता के ऄनुकूल चार भूतं के ईल्लेख हभन् न िम मं करते हुए ईनमं परस्पर सम्बन्ध स्थाहपत करते हं - हवा से पानी हुअ, पानी से अग हुइ और अग से हमट्टी। आन्हं से संसार गहतशील होता है -

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पौन हुतं भा पानी, पानी हुते भै अहग । अहग हुतं भै माँटी गोरखधन्धै लाहग ।।

सूफी साधना या सूफीमागष की पाररभाहषक शब्दावहलयाँ हं, जो हभन् न-हभन् न ऄवस्थाओं के पररचायक हं। आस मागष की

चार मंहजलं हं और ईन मंहजलं की चार ऄवस्थाएँ होती हं। पहली मंहजल है ‘शरीऄत’, हजसमं धमषग्रन्थं की मान्यताओं

का ऄनुपालन होता है। साधक की यह ऄवस्था ‘नासूत’ कही जाती है। दूसरी मंहजल ‘तरीित’ है हजसमं साधक जगत की

तुच्छताओं से उपर ईठ जाता है। आस ऄवस्था को मलकूत कहते हं। तीसरी मंहजल ‘माररफत’, ज्ञान-प्राह‍ त की ऄवस्था

‘जबरुत’ है। चौथी और ऄहन्तम मंहजल ‘हिीित’, परम-सत्य से साक्षात्कार के दरम्यान साधक की ऄवस्था ‘लाहूत’ की

होती है। प्रायः मंहजल और ऄवस्था को एक मान हलया जाता है। जायसी साधना के आन हवधानं के प्रहत अस्थावान थे -

‘चारर बसेरे’ सं चढ़ै सत सं चढ़ै जो पार’ जायसी की आस पंहि मं वस्तुतः चार मंहजलं का ही संकेत है।

सूफीमागष मं मनुष्य के भी चार हवभाग माने गए हं - 1. नफ़्स (हवषयोपभोग की प्रवृहत्त) 2. रूह (अत्मा) 3. कल्ब (हृदय) और 4. ऄक़्ल (बुहद्ध)। लक्ष्य तक पहुँचने के हलए साधक (साहलक) को सात भूहमयं को पार करना पड़ता है। दूसरे शब्दं मं

सूफी हजन्हं ‘मुकामात’ भी कहते हं। आनके नाम िमशः आस प्रकार हं - ऄबूददया (हृदय को पहवत्र करने की चेिा), आश्क (प्रेम), जहद (स्वेच्छादाररद्र्य), म्वाररफ (स्वरूप-हचन्तन), वज्द (ईन्माद) हिीम (सत्य की झलक) और वस्ल (हमलन)।

फ़ना और बिा की पूवष हस्थहत ‘वस्ल’ है। जायसी के ग्रन्थं मं आन हस्थहतयं के यथोहचत वणषन हुए हं।

सम्पूणष सृहि परमात्मा-हमलन के हलए व्याकुल है। दकन्तु यह महाहमलन साधना की ऄपूणषता मं सम्भव नहं।

धाआ जो बाजा कै मन साधा । मारा चि भएई दुआ अधा ।।

चन्द सुरुज औ नखत तराइ । तेहह डर ऄन्तररख दफरं सबाइ।।

पवन जाआ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस टूरट भुआँ रहा ।।

ऄहगनी ईठी ईरठ जरी हनयाना । धुवाँ ईठा ईरठ बीच हबलाना ।।

पाहन ईठा ईरठ जाइ न छुअ। बहुरा रोआ अआ भुईं चुवा ।।

ऄथाषत सिसहलद्वीप मं सुन्दरी पद्मावती हं। ईनके चारो ओर हबजली का चि और यमराज की कटारी घूमती रहती है।

आसहलए, ईन तक पहुँचना करठन है। हमलन की साध हलए जो वहाँ दौड़कर जाता है, वह चि से टुकड़े-टुकड़े हो जाता है।

सूयष, चन्रमा और नक्षत्र भयवश ही एक स्थान पर न रटककर अकाश मं घूमते रहते हं। हवा, अग, धुअँ, पानी भी ऄपने

प्रयासं मं हवफल हो जाते हं। महज आच्छा से योग-हसहद्ध नहं हो सकती और न ही ऄधूरे प्रयत् नं से। हठयोग साधना मं

चिं से गुज़रना पड़ता है। ऄह‍ न , जल अदद से कहव का यही संकेत है। हठयोग की सम्पूणषता मं ही प्राण की हसहद्ध (परमात्मा की प्राह‍ त ) होती है।

सूफीमत मं अस्था रखते हुए ही फारसी की मसनवी शैली मं जायसी ने ‘पद्मावत’ हलखा। आस प्रकार जायसी की भहि का

मूलाधार सूफीमत है। दफर भी ईनके ग्रन्थं मं भारतीय धमष, दशषन और साधनाओं के प्रहत ऄनुकूलन का भाव है।

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HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) M29 : जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

5. रहस्यवाद

प्रकृहत या परमात्मा के रहस्यं को जानने और ईसके साथ भावात्मक सम्बन्ध बनाने की प्रदिया ‘रहस्यवाद’ है। यहाँ बुहद्ध का ऄहभप्राय तकषयुि ज्ञान है। परन् तु भावावेश मं ज्ञानोदय की ऄहभव्यहि रहस्यात्मक हो जाती है। ज्ञान के क्षेत्र मं जो

ऄद्वैतवाद है, वही भावना के क्षेत्र मं रहस्यवाद हो जाता है। दाशषहनक दृहि से ‘रहस्यवाद’ का सावषदेहशक महत्त्व रहा है।

आसे हवशेष धमष या मत तक सीहमत नहं दकया जा सकता। “सभी मुख्य धमं मं रहस्यवादी प्रवृहत्त पाइ जाती है। हहन्दू

धमष, इसाइ धमष, बौद्ध धमष, आस्लाम धमष अदद के ऄनुयाहययं मं ईस परम-सत्य को पाने, ईसके साथ एकमेक होने की

ईत्कट अकांक्षाएँ पाइ जाती हं। चाहे वह पहश् च म का हो या पूरब का, चीन का हो या ऄरब का (रामपूजन हतवारी, सूफीमत : साधना और साहहत्य, पृ. 12-13)।”

रहस्यवाद के दो प्रकार हं - भावनात्मक और साधनात्मक। जब भावना के क्षेत्र मं अत्मा और परमात्मा मं तादात्म्य स्थाहपत दकया जाता है तो वह ऄनुभूहत ‘भावनात्मक रहस्यवाद’ की होती है। वैष्णव भहि के ‘माधुयष’ मं बीज रूप मं

भावनात्मक रहस्यवाद पहले से था, ईसे ईत्कषषता हमली सूदफयं के भारत अगमन के बाद। हनगुषणपन्थी कबीर, दादू और कृष्णभि कवहयहत्रयं - अण्डाल, मीरा ने ऄपने अराध्य को ‘हप्रयतम रूप’ मं ही देखा है। सूफी कव्वाल तीव्र हवरहानुभूहत मं गाते-नाचते मूर्छछत हो जाते हं। जब साधक, ध्यान, योग, जन्त्र-मन्त्र अदद दियाओं द्वारा परमात्मा से साक्षात्कार करता

है, तब ‘साधनात्मक रहस्यवाद’ होता है। हसद्ध, नाथं की परम्परा मं आसे पूणष प्रश्रय हमला था। सूदफयं ने ईनकी साधना- पद्धहत और प्रतीकं को भी ऄंगीकार दकया।

सूदफयं का सम्बन्ध बुहनयादी रूप से आस्लाम से रहा, ऄतः ‘आस्लामी रहस्यवाद’ से पररहचत होना अवश्यक है -

सही मायने मं, आस्लाम मं रहस्यवाद का सूत्रपात ‘सूफीमत’ मं हुअ। आब्नुल ऄरबी के ऄनुसार, ‘वहदतुलवुजद’ के हसद्धान्त से हुअ। ईनके ‘हमाबुस्त’ का तात्पयष है - ‘इश् वर ही सब कुछ है।’ ईसमं लीन होकर आन्सान ऄपना वजूद ईसी तरह हमटा दे

जैसे पानी की बूँदं समुर मं हमलकर समा‍ त होती हं। आहतहासकार ताराचन्द आस्लामी रहस्यवाद के तीन ईद्गम बताते हं - एक, मुहम्मद साहब का स्वयं का रहस्यवादी व्यहित्त्व। दो, अठवं सदी मं इसाआयं के पंथेआज़्म (सवेश् वरवादी हसद्धान्त) से मुसलमानं का प्रभाहवत होना। यूनानी-ऄद्वैतवाद के कारण इसाआयं मं माधुयष भावना पहले से थी। तीसरा मोड़ अया

भारतीयं और फारहसयं के व्यापार-सम्बन्ध से। ईनके बीच दाशषहनक हसद्धान्तं के भी अदान-प्रदान हुए। सूदफयं की

प्रेमभावना से दकसी को ख़तरा न था, ऄतः ईसे लोकहप्रयता हमली (सन्दभषः भारतीय संस्कृहत पर आस्लाम का प्रभाव)।

6. जायसी का रहस्यवाद

“हहन्दी के कहवयं मं यदद कहं रमणीय और सुन्दर ऄद्वैती रहस्यवाद है, तो जायसी मं, हजनकी भावुकता बहुत उँची कोरट की है। वे सूदफयं की भहि भावना के ऄनुसार कहं तो परमात्मा को हप्रयतम के रूप मं देखकर जगत के नाना रुपं मं ईस

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हप्रयतम के रूप-माधुयष की छाया देखते हं, और कइ सारे प्राकृहतक रुपं

और व्यापारं का ‘पुरुष’ मं समागम हेतु प्रकृहत को शृंगार, ईत्कण्ठा या हवरह हवकलता के रूप मं ऄनुभव करते हं (अचायष रामचन्र शुक्ल, जायसी, पृ. 141)।”

रहस्यवाददयं के हलए ‘प्रेम’ सवोत्कृि है। जायसी के रहस्यवाद मं हजस प्रेम-तत्त्व की प्रहतष्ठा हुइ है, वह पूणषतया तसव्वुफ के ऄनुकूल है। प्रेमाख्यान ‘पद्मावत’ मं प्रेम को ही गररमा प्रदान की गइ है। जायसी का कथन है, तीनं लोक और चौदह खण्डं मं जहाँ तक दृहि जाती है, एक मात्र प्रेम ही सौन्दयष है और कुछ नहं -

तीहन लोक चौदह खण्ड, सबै परै मोहह सूहझ।

प्रेम छाँहड दकछू और न लोना, जो देखं मन बूहझ।।

साधक, ऐसे प्रेम के हलए करठन से करठन मागष पर जाता है। प्रेम-हवरह की अग मं तपकर ही ईसकी भहि का खरापन हसद्ध होता है। ‘पावषती महेस खण्ड’ मं गौरा पावषती रत् नसेन के प्रेम को खरा बताती हुइ कहती हं –

हनस्चै यहु हवरहानल दहा । कसत कसौटी कंचन लागा ।।

रहस्यवादी, प्रकृहत मं परमसत्य का अभास पाते हं। दृश्यमान जगत के सौन्दयष मं ऄलौदकक सत्ता का ईन्हं संकेत हमलता

है। जायसी, पद्मावती को पारस रूप बताते हं। वह परमज्योहत है, ईसी से सभी प्राकृहतक ईपादान अलोदकत होते हं - सूयष, चन्रमा, नक्षत्र, हीरे, रत् न, माहणक्य, मोती ईसी की ज्योहत से प्रकाशमान हं -

बहुतै जोहत जोहत ओहह भइ।

रहव सहस नखत दीपसिह ओहह जोहत। रतन पदारथ माहनक मोती ।।

ज्योहत से साक्षात्कार होते ही ऄन्धकार का गुम होना लाज़मी है। प्रभात का ईत्प्रेरक दृश्य तभी ईपहस्थत होता है। प्रकृहत मं हप्रयतम का बोध और सामी‍य लाभ से भि को जो अनन्दानुभूहत होती है, ईसकी व्यंजना जायसी बहुत ही भावुक ढंग से करते हं -

देहख मानसर रूप सोहावा।

हहयँ हुलास पुरआहन होआ छावा।।

गा ऄँहधयार रैहन महस छूटी । भा हभनुसार दकररन रहव फूटी।।

सरलाथष यह दक राजा हीरामन तोता और ऄन्य के साथ सातवं मानसर समुर मं पहुँचा तो मानसर का सुन्दर रूप देखकर ईसे ऄत्यहधक ईल्लास हुअ। ईसे ऐसा ऄनुभव हुअ दक ईनकी प्रसन् नता ही मानो कमल की बेल बनकर मानसर पर छाइ हुइ है। रात की स्याही छूट गइ। ऄँधेरा चला गया। भोर हुअ और सूयष की दकरणं हनकलने लगं। यहाँ मानसर के सौन्दयष मं

परम-सौन्दयष को संकेहतत दकया गया है।

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HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहि कालीन काव्य) M29 : जायसी : सूफी भावना और रहस्यवाद

जायसी के ऄनुसार परमात्मा प्रकृहत के कण-कण मं हवद्यमान है। वह

सृहि का हसरजनहार ही नहं, संचालक भी है। ईसी से प्रकृहत ऄनुशाहसत होती है। ईसने ही स्वगष बनाया, धरती बनाइ, चाँद, सूरज, तारे बनाए, वन, समुर, पहाड़ बनाए और भी नाना प्रकार की वस्तुओं का ईसने ही हनमाषण दकया है। सार यह दक वही सवषस्व है। हचत्ररेखा मं जायसी ने ऐसा ही कहा है -

सरग साहज कै धरती साजी। बरन-बरन सृहि ईपराजी।।

साजे चाँद सुरुज और तारा। साजे बन कहँ समुर पहारा।।

जायसी, ऄनन्त सत्ता की प्रतीहत बाह्य जगत मं ही नहं, ऄन्तजषगत मं भी करते हं। हसद्धं, नाथं की भाँहत हपण्ड के भीतर।

हवरहानुभूहत की हवकल ऄहभव्यहि जायसी ने आस तरह की है-

हपई हहरदय महँ भंट न होइ। को रे हमलाव कहौ केहह रोइ।।

हवरह के ममष को वही समझ सकता है, हजसे प्रेम घाव का ऄनुभव हो - प्रेम घाव दुःख जानै कोइ। जेहह लागे जानै पे सोइ।।

जो परमात्मा की ऄनुपम छाँह पा लेता है, वह अवागमन के चि से मुि हो जाता है। ईसे धूप नहं सहनी पड़ती - जेहह वह पाँइ छाँह ऄनूपा, दफरर नहं अइ सहे यह धूपा।

जायसी को रहस्यमयी सत्ता के प्रहत पूणष हवश् वास है। ऄद्वैतवाद, सवेश् वरवाद और प्रहतहबम्बवाद की मान्यताओं के ऄनुकूल ईन्हंने ऄनन्त सत्ता की ऄहभव्यंजना की है। वस्तुतः जायसी का रहस्यवाद भारतीय-ऄभारतीय दशषन और हसद्धान्तं का

समवेत रूप है। ईसमं रहस्य भावना को पूरा ईत्कषष हमला है।

7. हनष्कषष

भहिकाल के प्रहतहनहधयं कहवयं का चयन दाशषहनक हसद्धान्तं के अधार पर हुअ है। बुहनयादी तौर पर जायसी का

सम्बन्ध आस्लाम, आस्लामी रहस्यवाद और सूफीमत से था। आसहलए, ईन्हंने प्रेमतत्त्व को सवाषहधक महत्ता दी। वे प्रेममागष के प्रहतहनहध कहव कहे गए। दफर भी, सवषग्राही और समन्वयवादी दृहि के कारण ईनके हसद्धान्त और साधना-पक्ष मं

भारतीय धमष-साधना के भी कुछ ऄंगं को स्वीकृहत हमली है। सचमुच जायसी की सूफी साधना और रहस्यवाद का पाठ ऄकादहमक दृहि से ही नहं, सामाहजकता के हलए भी महत्त्वपूणष है।

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